Book Title: Bharatiya Yoga aur Jain Chintandhara
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ १६० +++++ ज्ञानी याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी के इन उद्गारों से प्रभावित होते हैं और वे उसे आत्म-तत्व की अनुसन्धित्सा की ओर प्रेरित करते हैं । उनके उस प्रवचन की अन्तिम पंक्तियाँ बड़ी प्रेरक हैं ..........आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ! आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वविदितम्।" अर्थात् मैत्रेयी ! आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय तथा निदिध्यासनीय है । उसी के दर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान से सब विज्ञात हो जाता है । Jain Education International कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का कथानक तथा संवाद भारतीय मानस की उस अन्तर्वृत्ति का द्योतक हैं, जिसे वास्तविक तृप्ति, तुष्टि किंवा शान्ति के लिए कुछ ऐसा चाहिए था, जो उसे बहिर्जगत् में प्राप्त नहीं हो रहा था। आत्म-तत्वमूलक चिन्तन के ऊर्ध्वगामी विकास की ओर यह एक सजीव इंगित है । इसी या एतत्तुल्य पृष्ठभूमि पर आत्मवादी दर्शनों की धारा बहुमुखी आयामों में विस्तार पाती है, जिसका न केवल भारतीय प्रत्युत विश्व वाङ्मय में अपना अनन्य साधारण स्वान है। भारतीय दर्शनों की मूल प्रेरणा वास्तविक दृष्ट्या यह जगत दुःखमय है। कहने को दुःखनिवारक साधन हैं पर दुःख उनसे सर्वभा ध्वस्त नहीं होते। इसी मानसिक उहापोह के आधार पर अधिकांश भारतीय दर्शनों की चिन्तनधारा दुःख के आदर्श से प्रारम्भ होती है । उदाहरणार्थ, यहाँ केवल सांख्य दर्शन का सन्दर्भ उपस्थापित किया जाता है । सांख्यदर्शन की अतिप्रामाणिक पुस्तक ईश्वरकृष्ण रचित सांख्यकारिका का प्रारम्भ इसी विचार से होता है। उसकी प्रथम कारिका इस प्रकार है "दुःखाभिपातात् जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । सापाचेनैकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥" दृष्टे आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैनिक दुःखों से मानव पीड़ित है। इसलिए अपघात दुःख नाशक कारण की गवेषणा करता है। पर, दृष्ट- बाह्य कारणों से उनका एकान्ततः तथा अत्यन्ततः निवारण नहीं हो पाता । अभिप्रेत ईश्वरकृष्ण अपनी पुस्तक की दूसरी कारिका में दृष्ट निवारक कारणों की तरह आनुभविक — वेदसम्मत यज्ञ-यागादिक भी अस्वीकार करता है तथा दुःखनिवृत्ति की हेतुता १-पुरुष या आत्मा, २- अव्यक्तप्रकृति तथा व्यक्त महत् से भूतपर्यन्त के विज्ञान विशिष्ट ज्ञान सम्यक् ज्ञान में है, वैसा मानता है। यह कारिका इस प्रकार है- "दृष्टवद् आनुश्रविकः स हि अविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् ॥" - भारतीय दर्शनों का चरम अभिप्रेत मोक्ष है। मोक्ष का तात्पर्य समग्र दुःखों की एकान्तिक तथा आत्यन्तिक निवृत्ति है। मोक्ष शब्द जिसका अर्थ छूटना या छुटकारा पाना है, से यह प्रकट है। यदि गहराई में जायें तो प्रतीत होता है, मोक्ष की व्याख्या में कुछ अन्तर भी रहा है । कतिपय दार्शनिकों ने दुःखों की आत्यन्तिक एकान्तिक निवृत्ति के स्थान पर सहज, शाश्वत सुख प्राप्ति को मोक्ष शब्द से अभिहित किया है की प्राप्ति होने पर दुःखों का सर्वदा के लिए सर्वया अपगम हो जाता है। । यह स्वाभाविक है कि एतत्कोटिक सुख वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग और बौद्ध दर्शन पहले पक्ष के परिपोषक हैं तथा वेदान्त और जनदर्शन दूसरे पक्ष का समर्थन करते हैं वेदान्त दर्शन में ब्रह्म For Private & Personal Use Only www.jaintelibrary.org.

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