Book Title: Bharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
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दो ग्रन्थ माने जाते हैं । तर्कशास्त्र में तीन प्रकरण हैं। प्रथममें परस्पर दोषापादन, खण्डनप्रक्रिया, प्रत्यक्षविरुद्ध, अनुमानविरुद्ध, लोकविरुद्ध तीन विरुद्धोंका कथन, हेतुफलन्याय, सापेक्षन्याय, साधनन्याय, तथतान्याय चार न्यायोंका प्रतिपादन आदि है। द्वितीयमें खण्डनभेदों और ततीयमें उन्हीं बाईस निग्रहस्थानोंका अभिधान है, जिनका गौतमके न्यायसूत्रमें है। किन्तु गौतमकी तरह हेत्वाभास पाँच वणित नहीं हैं, अपितु असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक तीन अभिहित है।' जैसी युक्तियाँ और प्रत्युक्तियाँ इसमें प्रदर्शित है उनसे अनमानका उपहास ज्ञात होता है। पर इतमा स्पष्ट है कि शास्त्रार्थमें विजय पाने और विरोधीका मुंह बन्द करनेके लिए सद्-असद् तर्क उपस्थित करना उस समयकी प्रवृत्ति रही जान पड़ती है।
__ उपायहृदयमें चार प्रकरण है। प्रथममें वादके गुण-दोषोंका वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे वाद करनेवालोंको विपुल क्रोध और अहंकार उत्पन्न होता है तथा चित्त विभ्रान्त, मन कठोर, परपापप्रकाशक और स्वकीय पाण्डित्यका अनुमोदक बन जाता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि तिरस्कार. लाभ और ख्याति के लिए वाद नहीं, अपित सुलक्षण और दुर्लक्षण उपदेशकी इच्छासे वह किया जाना चाहिए । पदि लोकमें वाद न हो तो मोका बाहल्य हो जायगा और उससे मिथ्याज्ञानादिका साम्राज्य जम जाएगा। फलतः संसारकी दुर्गति तथा उत्तम कार्योंकी क्षति होगी। इस प्रकरण में न्यायसूत्रकी तरह प्रत्यक्षादि चार प्रमाण और पूर्ववदादि तीन अनुमान वर्णित हैं । आठ प्रकारके हेत्वाभायों आदिका भी निरूपण है। द्वितीयमें वादधर्मों आदिका, तृतीयमें दूषणों आदिका और चतुर्थमें बीस प्रकारके प्रश्नोत्तर धर्मों, जिनका न्यायसूत्र में जातियोंके रूपमें कथन है, आदिका वर्णन है। उल्लेख्य है कि इसमें पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन अनुमानोंके जो उदाहरण दिये गये हैं वे न्यायभाष्यगत उदाहरणोंसे भिन्न तथा अनुयोगसूत्र और युवितदीपिकासे अभिन्न हैं। इससे प्रतीत होता है कि इसमें किसी प्राचीन परम्पराका अनुसरण है।
यहाँ इन दोनों ग्रन्थोंके संक्षिप्त परिचयका प्रयोजन केवल अनुमानके प्राचीन स्रोतको दिखाना है। परन्तु उत्तरकालमें इन ग्रन्थोंकी परम्परा नहीं अपनायी गयी । न्यायप्रवेश में अनमानसम्बन्धी अभिनव परम्पराएँ स्थापित की गयी है। साधन (परार्थानमान) के पक्ष, हेतु और दृष्टान्त तीन अवयव, हेतुके पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व तीन रूप, पक्ष, सपक्ष और विपक्ष के लक्षण तथा पक्षलक्षणमें प्रत्यक्षाद्य विरुद्ध विशेषणका प्रवेश, जो प्रशस्तपादके अनुसरणका सूचक है, नवविध पक्षाभास, तीन हेत्वाभास
और उनके प्रभेद, द्विविध दृष्टान्ताभास और प्रत्येकके पांच-पांच भेद, प्रत्यक्ष और अनुमानके भेदसे द्विविध १. यथापूर्वमुक्तास्त्रिविधाः । असिद्धोऽनकान्तिको विरुद्धश्चेति हेत्वाभासाः ।-तर्कशास्त्र पृष्ठ ४० । २. वही, पृष्ठ ३। ३. उपायहृदय पृष्ठ ३ । ४. वही, पृष्ठ ६-१७, १८-२१, २२-२५, २६-३२ । ५. यथा षडंगुलि सपिडकमूर्धानं बालं दृष्ट्वा पश्चावृद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं दृष्ट्वा षडंगुलिस्मरणात् सोऽयमिति
पूर्ववत् । शेषवत् यथा, सागरसलिलं पीत्वा तल्लवणं समनुभूय शेषमपि सलिलं तुल्यमेव लवणमिति"।
-वही, पृष्ठ १३ । ६. सं० मुनिश्री कन्हैयालाल, मूलसुत्ताणि, अ० सू० पृष्ठ ५३९ । ७. यु० दी० का० ५, पृष्ठ ४५ । ८. न्या० प्र० पृष्ठ १-८ ।
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