Book Title: Bharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 41
________________ तार्किक है जिन्होंने वाचस्पति और विज्ञानभिक्षुसे पूर्व सर्व प्रथम तर्कको व्याप्तिग्राहक समर्थित एवं सम्पुष्ट किया तथा सबलतासे उसका प्रामाण्य स्थापित किया। उनके पश्चात् सभीने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया । तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति : यद्यपि बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति और अन्तर्व्याप्तिके भेदसे व्याप्तिके तीन भेदों, समव्याप्ति और विषमव्याप्ति के भेद से उसके दो प्रकारों तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति इन दो भेदोंका वर्णन तर्कग्रन्थों में उपलब्ध होता है किन्तु तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति इन दो व्याप्तिप्रकारों (व्याप्तिप्रयोगों) का कथन केवल जैन तर्कग्रंथोंमें पाया जाता है। इनपर ध्यान देनेपर जो विशेषता ज्ञात होती है वह यह है कि अनुमान एक ज्ञान है उसका उपादान कारण ज्ञान ही होना चाहिए । तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति ये दोनों ज्ञानात्मक हैं, जब कि उपर्युक्त व्याप्तियाँ ज्ञेयात्मक ( विषयात्मक ) हैं । दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियोंमें एक अन्तर्व्याप्ति ही ऐसी व्याप्ति है, जो हेतुकी गमकतामें प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियाँ अन्त प्ति के बिना अव्याप्त और अतिव्याप्त हैं, अतएव वे साधक नहीं हैं । तथा यह अन्तर्व्याप्ति ही तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिरूप है अथवा उनका विषय है। इन दोनोंमेंसे किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त है । इनका विशेष विवेचन अन्यत्र किया गया है । साध्याभास : अकलङ्कने अनुमानाभासोंके विवेचन में पक्षाभास या प्रतिज्ञाभास के स्थान में साध्याभास शब्दका प्रयोग किया है | अकलङ्कके इस परिवर्तन के कारणपर सूक्ष्म ध्यान देनेपर अवगत होता है कि चूँकि साधनका विषय ( गम्य ) साध्य होता है और साधनका अविनाभाव ( व्याप्तिसम्बन्ध ) साध्यके ही साथ होता है, पक्ष या प्रतिज्ञाके साथ नहीं, अतः साधनाभास ( हेत्वाभास) का विषय साध्याभास होनेसे उसे ही साधनाभासों की तरह स्वीकार करना युक्त है । विद्यानन्दने अकलङ्ककी इस सूक्ष्म दृष्टिको परखा और उनका सयुक्तिक समर्थन किया । यथार्थमें अनुमानके मुख्य प्रयोजक साधन और साध्य होनेसे तथा साधनका सीधा सम्बन्ध साध्यके साथ ही होनेसे साधनाभास की भाँति साध्याभास ही विवेचनीय है । अकलङ्कने शक्य अभिप्रेत और असिद्धको साध्य तथा अशक्य, अनभिप्रेत और सिद्धको साध्याभास प्रतिपादित किया है - ( साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥ ) अकिञ्चित्कर हेत्वाभास: हेत्वाभासोंके विवेचन-सन्दर्भ में सिद्धसेनने कणाद और न्यायप्रवेशकारकी तरह तीन हेत्वाभासोंका कथन किया है, अक्षपादकी भाँति उन्होंने पाँच हेत्वाभास स्वीकार नहीं किये। प्रश्न हो सकता है कि जैन तार्किक हेतुका एक (अविनाभाव - अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते हैं, अतः उसके अभाव में उनका हेत्वाभास एक ही होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य तो हेतुको त्रिरूप तथा नैयायिक पंचरूप स्वीकार करते हैं, अतः उनके अभाव में उनके अनुसार तीन और पाँच हेत्वाभास तो युक्त हैं । पर सिद्धसेनका हेत्वाभास - त्रैविध्य प्रतिपादन कैसे युक्त है ? इसका समाधान सिद्धसेन स्वयं करते हुए कहते हैं कि चूँकि अन्यथानुपपन्नत्वका अभाव तीन तरहसे होता है— कहीं उसकी प्रतीति न होने, कहीं उसमें सन्देह होने और कहीं उसका विपर्यास होनेसे; प्रतीति न होनेपर असिद्ध, सन्देह होनेपर अनैकान्तिक और विपर्यास होनेपर विरुद्ध ये तीन हेत्वाभास होते हैं । Jain Education International - २७९ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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