Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Do Pramukh Maha Ghatako ka Sambandh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 7
________________ भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्म सन्तोष ही सर्वोच्च जीवन मूल्य है। 40 ७ एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ है कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देह- दण्डन ही तप त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए। प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देता है अतः स्वाभाविक रूप से वह समाजगामी बना, क्योंकि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति, जिसका एक अंग काम भी है, की पूर्ण संतुष्टि तो समाज - जीवन में ही सम्भव थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म समाज - विमुख और वैयक्तिक बन गये । यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद उनकी पूर्ति या आपूर्ति किन्हीं अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह दैववादी और ईश्वरवादी बन गया । विश्व व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्त्वों के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थक होते हुए भी कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगा कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है, अतः निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों में आस्था रखने लगा। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्म - सिद्धान्त उसके प्रमुख तत्त्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्मों में अलौकिक दैवीय शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्यविधानों (यज्ञ-याग) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त शुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्मकाण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना। श्रमण और वैदिक धाराओं की प्राचीनता का प्रश्न यहां स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि श्रमण धारा और वैदिक धारा में कौन प्राचीन है ? Jain Education International इस प्रश्न का उत्तर दो दृष्टियों से दिया जा सकता है - (१) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से और ( २ ) ऐतिहासिक दृष्टि से । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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