Book Title: Bharatiya Sadhna Paddhati me Gurutattva ka Mahattva Author(s): N C Jogalkar Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 4
________________ भारतीय साधना-पद्धति में गुरुतत्त्व का महत्व वह वैदिक संस्तक विशिष्ट जाना-अणु विश्वकत्व में ति में फिर भलसदगुरु, का जीवकण-कण, मनके व्यक्तित्व औरट सन्त ही तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों को गुरु की कोई आवश्यकता नहीं होती। जैन साहित्य में प्रत्येकबुद्ध का जो वर्णन है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रत्येकबुद्ध बिना गुरु को निमित्त बनाये अपनी प्रगति स्वयं कर लेता है। गुरु अनिवार्य ही है ऐसा कोई शाश्वत नियम नहीं है । स्वयं साधक प्रबल पुरुषार्थ से अपनी प्रगति स्वयं करता है तथापि जैन साधना में गुरु का गौरव कम नहीं है। सामाजिक जीवन में गुरु की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। चतुर्विध संघ की सुव्यवस्था गुरु करता है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, और पांच आचार का पालन करने वाले, पाँच इन्द्रियों का संवरण करने वाले, नवविध ब्रह्मचर्य गुप्ति को धारण करने वाले और चार कषायों से विमुक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों से युक्त व्यक्ति को सद्गुरु कहा गया है। अष्टकर्म को नष्ट कर सिद्ध बनते हैं । अर्हन्त और सिद्ध में यही अन्तर है कि अर्हन्त, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, भोहनीय, अन्तराय इन चार घनघाती कर्मों को नष्ट कर देते हैं जिससे वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाते हैं। पूर्णज्ञानदर्शन के धारक बनकर जन-जन का उपदेश द्वारा कल्याण करते हैं। अरिहन्त देहधारी होते हैं। जब सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं तब अरिहन्त ही सिद्ध बन जाते हैं। सिद्ध निरञ्जन, निराकार, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और निर्लिप्त होते हैं। सारांश यह है कि भारतीय संस्कृति में फिर भले ही वह वैदिक संस्कृति हो, जैन संस्कृति हो या बौद्ध संस्कृति हो, सभी ने गुरु के गौरव की यशोगाथा गायी है। सद्गुरु, का जीवन एक विशिष्ट जीवन है जिसमें आचार की उत्कृष्टता के साथ ही विचारों की निर्मलता होती है। उसके जीवन का कण-कण, मन का अणु-अणु विश्वकल्याण के लिए समर्पित होता है। मैंने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के दर्शन किये थे। मुझे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सद्गुरु की विष्टिताओं के संदर्शन हुए, उनके सन्निकट बैठकर अपार आह्लाद का अनुभव हुआ। ऐसे विशिष्ट सन्त ही सद्गुरु की अभिधा के योग्य हैं। 'नास्ति तत्वं गुरोः परं' जो कहा गया है वह अधिक सार्थक है। मैंने बहुत ही संक्षेप में गुरुतत्त्व पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। मेरा मानना है कि गुरु के बिना साधक को साधना के गुर प्राप्त नहीं हो सकते। कोई भी साधना बिना गुरु के अपना चमत्कार नहीं दिखा सकती। अतः सद्गुरु की महिमा जितनी भी गाई जाय उतनी कम है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १ व्यवहारी मंत्र साम्यं भवेत् देशिकशिष्ययोः । परमार्थे तु गुर्वाधीनः इति स्वमतनिर्णयः॥ -यष्टी १६ २ गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात् पांब्रह्मः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३ यस्य देवे पराशक्तियथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाश्यन्ते महात्मनः ।। -श्वेताश्वतर उपनिषद ४ गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपनै गोविन्द दिया बताय ।। ५ (अ) वन्दे बोधमयम् नित्यं गुरु शंकररूपिणम् । यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र बंद्यते ।। (आ) बन्दौ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि । महामोहतम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥ वन्दी गुरु पद पदुम परागा। सुरुचिर वास सरस अनुरागा ।। (ई) श्री गुरुपद नख मनिगन ज्योती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।। (उ) गुरुपदरज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिय दृग दोष विभंजन ॥ -रामचरितमानस (बालकाण्ड ५-७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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