Book Title: Bharatiya Darshan ke Samanya Siddhant Author(s): Vijay Muni Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 9
________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त २३७ करने मात्र से बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता है छुटकारा पाने के लिए बन्ध को, और आत्मा के स्वभाव को भली-भाँति समझकर बन्धन से विरक्त होना चाहिए । जीव और बन्ध के अलगअलग लक्षण समझकर प्रज्ञा रूपी छुरी से उन्हें अलग करना चाहिए, तभी बन्धन से छूटता है । बन्ध को छेद कर क्या करना चाहिए। आत्म-स्वरूप में स्थित होना चाहिए। आत्मस्वरूप को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? इस के उत्तर में कहा गया है कि मुमुक्षु को आत्मा का इस प्रकार विचार करना चाहिए— मैं चेतन स्वरूप हूं, मैं दृष्टा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, शेष जो कुछ भी है, वह मुझसे भिन्न है । शुद्ध आत्मा को समझने वाला व्यक्ति समस्त पर भावों को परकीय जानकर उनसे अलग हो जाता है । यह पर भाव से अलग हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है ।" इस प्रकार जैन दर्शन में मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। जैन दर्शन में विशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करने को ही मोक्ष कहा गया है। सौम्य दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक एक प्रकार का भेद-विज्ञान है। इसके विपरीत बन्ध प्रकृति और पुरुष का अविवेक है। पुरुष नित्य और मुक्त है । अपने अविवेक के कारण यह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य मान लेता है। शरीर इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब प्रकृति के विकार हैं, लेकिन अविवेक के कारण पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है। मोश पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति है बन्ध एक प्रतीति मात्र है, और इसका कारण अविवेक है। योग दर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की एक अवस्था विशेष है। आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति तब होती है, जब तप और संयम के द्वारा मन से सब कर्म-संस्कार निकल जाते हैं । सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्मात्र अवस्थिति मानते हैं । इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत हो जाता है। क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियां मात्र हैं। इन वृत्तियों का आत्यन्तिक अभाव ही सांख्य और योग दर्शन में मुक्ति है। न्याय और वैशेषिक दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते हैं, जिसमें वह मन और शरीर से अत्यन्त विमुक्त हो जाता है, और सत्ता मात्र रह जाता है । मोक्ष आत्मा की अचेतन अवस्था है, क्योंकि चैतन्य तो उसका एक आगन्तुक धर्म है, स्वरूप नहीं जब आत्मा का शरीर और मन से संयोग होता है तभी उसमें चैतन्य का उदय होता है। अतः मोक्ष की अवस्था में इन से वियोग होने पर चैतन्य भी चला जाता है । मोक्ष की प्राप्ति तत्त्व-ज्ञान से होती है । यह दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। मीमांसा दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति माना गया है, अवस्था में आत्मा जिसमें सुख और दुःख का अत्यन्त विनाश हो जाता है। अपनी स्वाभाविक अचेतन होता है। मोक्ष दुःख के आत्यन्तिक अभाव की अवस्था है। अनुभूति नहीं होती आत्मा स्वभावतः सुख और दुःख से अतीत है। शक्ति तो रहती है, परन्तु ज्ञान नहीं रहता । लेकिन इसमें आनन्द की मोक्ष की अवस्था में ज्ञान अद्वैत वेदान्त मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है क्योंकि परमार्थतः आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा विशुद्ध सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है। बन्ध मिथ्या है । अविद्या एवं माया ही इसका कारण है । आत्मा अविद्या के कारण शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि १ समयसार २८०-३०० Jain Education International आचार्य प्रवर श्री आनन्द अभिनंदन आयाय व अन्थ 99 श्री आनन्द For Private & Personal Use Only www.wor Give अभिन्द अन्थ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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