________________ A waaJANWRMANPRAIAAAAJAJARKAAAAAAAJAANJadaiadAJANAADABADASANATASAN आचार्यप्रकाआचार्यप्रसा श्रIEIGथाआनन्दमाश 238 धर्म और दर्शन और अहंकार के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है, जो कि माया निर्मित है / वेदान्त-दर्शन के अनसार यही मिथ्या तादात्म्य बन्ध का कारण है। अविद्या से आत्मा का बन्धन होता है, और विद्या से इस बन्धन की निवृत्ति होती है / मोक्ष आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह न चैतन्य रहित अवस्था है, और न दुःखाभाव मात्र की अवस्था है, बल्कि सत्, चित् और आनन्द की ब्रह्म अवस्था है। यही जीवात्मा के ब्रह्मभाव की प्राप्ति है। इस प्रकार मोक्ष की धारणा समस्त भारतीय-दर्शनों में उपलब्ध होती है। वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति दार्शनिक चिन्तन का लक्ष्य रहा है। भारत के सभी दर्शनों में इसके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, और अपनी-अपनी पद्धति से प्रत्येक दार्शनिक ने उसकी व्याख्या की है। उपसंहार भारतीय दर्शनों में जिन तथ्यों का निरूपण किया गया है, उन सब का जीवन के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है। भारतीय-दार्शनिकों ने मानव जीवन के समक्ष ऊँचे-से-ऊँचे आदर्श प्रस्तुत किए हैं। वे आदर्श केवल आदर्श ही नहीं रहते, उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न भी किया जाता है। इस के लिए विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार की साधनाओं का भी प्रतिपादन किया है। ये साधन तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान-योग, कर्म-योग, और भक्ति-योग। जैन-दर्शन में इन्हीं को रत्न-वय-सम्यक्-दर्शन सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र कहा जाता है। बौद्ध-दर्शन में इन्हें प्रज्ञा, शील और समाधि कहा है। इन तीनों की साधना से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में उच्च से उच्चतर एवं उच्चतम आदर्शों को प्राप्त कर सकता है / दर्शन का सम्बन्ध केवल बुद्धि एवं तर्क से ही नहीं, बल्कि हृदय एवं क्रिया से भी उसका सम्बन्ध है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन की परम्परा के प्रत्येक दार्शनिक-सम्प्रदाय ने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण पर बल दिया है। भारतीय दर्शन एवं चिन्तन केवल बौद्धिक-विलास मात्र नहीं है, अपितु वह जीवन की वास्तविक एवं यथार्थ स्थिति का प्रतिपादन भी करता है / अतः वह वास्तविक अर्थ में दर्शन है। RANIA प्रानन्द-वचनामृत ऊपर की दिखावट वास्तविकता की निर्णायक नहीं होती, भैस देखने में काली होती है किन्तु उसका दूध सफेद होता है। इसी प्रकार सज्जन पुरुप-चाहे जैसी मैली वेशभूषा में हों, उनके हृदय में सदा दूध की भांति स्निग्धता भरी रहती है। अध्यात्म के पथ पर चलना नारियल के वृक्ष पर चढ़ना है। नारियल के पेड़ पर बढ़ते समय पग-पग पर फिसलने का भय बना रहता है, किन्तु चढ़ने वाले अभ्यास द्वारा निर्विघ्न चढ़ जाते हैं। इसी प्रकार साधक अभ्यास द्वारा अपने कठोर साधना पथ पर निविघ्न चलते हुए लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org