Book Title: Bhagwan Mahavir ke Siddhanto ki Aaj ke Yuga me Upayogita Author(s): Rina Jaroli Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 5
________________ ही धर्म है। वस्तु अपने आप में ठीक जैसी है, ठीक वैसी ही देखना, जानना धर्म है। जो कुछ भी ज्ञान का विषय है, ज्ञेय है और तत्वत: वस्तु 'ऑब्जेक्ट है। अर्थात् हम स्वयं निज स्वरूप में रहते हुए, द्रव्य के नित परिणमनशील रुप से संचेतना के साथ जुड़े रहें, यही धर्म धर्म जो जीवन का पाथेय एवं आत्मा का प्राण है, आज बाड़ो। दीवारों। सम्प्रदायों में सिमटता जा रहा है। कहीं क्रिया की प्रधानता है तो कहीं ज्ञान की आवश्यकता है। वस्तु के स्वरूप-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को सम्यक् रूप से समझने की। धर्म जीवन से जुड़ने पर ही वास्तविक बन सकता है। यही कारण है कि महावीर ने 'है और 'होना चाहिए' का अन्तर न मानकर यथार्थ वस्तुस्थिति में जीना ही आदर्श माना और आदर्श तथा यथार्थ को अलग नहीं स्वीकारा. मानोविकारों पर विजय: आत्मानुशासन इस युग में स्वास्थ्य का हास होता जा रहा है। भयंकर एवं असाध्य रोग मानव को जकडे हुए है। आज अधिकांश रोग मन से जुड़े हैं, तन की पूर्ण आरोग्यता नहीं। कुंठा, भय, लोभ, असंतोष जैसे मनोरोग शरीर में स्नायु तन्तु को प्रभावित करते हैं जिससे रक्तसंचार एवं अंगोंपांगों पर प्रभाव पड़ता है। मन के विकारों पर नियंत्रण से ही वर्तमान युग में व्याप्त हिंसा, अपराधवृति एवं भ्रष्टाचार पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यदि हमें वास्तविक सुख प्राप्त करना है तो आत्मा के मूल स्वभाव-सरलता, समता, निर्वेर, निर्लोभ दशा में रमण करना होगा। मनोविज्ञान एवं औषधिविज्ञान ने आज सिद्ध कर दिया है कि क्रोध से पेप्टिक अल्सर, निराशा से मन्दाग्नि, चिंता से हृदयरोग व उच्चरक्तचाप जैसे रोग पैदा हो जाते है। मानसिक चिंता विषाद से अपचन, हिस्टीरिया आदि रोग उत्पन्न होते हैं। यदि विष्लेषणका देखा जाय तो आज अधिकांश रोगों की जड़ मन में है और वे असंयम, कुत्सित इच्छाओं एवं दुर्वासनाओं से पोषित है। आज के चिकित्साशास्त्री बाह्य कारणों से उत्पन्न रोग-कीटाणुओं के विनाश के लिए तो प्रयत्नशील है। लेकिन मनोभूमिका में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, अहंकार, स्वार्थपरता, कुटिलता, भय, अतृप्ति आदि विकारों से उत्पन्न रोग-कीटाणुओं के विनाश की ओर उनका ध्यान नहीं है। ऐसी स्थिति में महावीर के सिद्धान्त प्रभावक हैं। यदि हमें जीवन में सर्वांगीण विकास करना है तो आत्मधर्म के लिए सतत गतिशील रहना होगा। कुश के अग्रभाग पर ठहरी ओसबिन्दु से मानव जीवन की तुलनाकर महावीर ने 'समय गोमय मा पमायए' का संदेश दिया है। अर्थात् समय मात्र (एक परमाणु की गतिका समय) भी प्रमाद मत करो। परिवर्तित जीवन मूल्यों के युग में भी आज आत्मधर्म की उपयोगिता कम नहीं हुई हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि महावीर के सिद्धान्तों की आज के युग में उपयोगिता असंदिग्ध है। विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरे कर्म सिद्धान्त, गुणसूत्र, संस्कार-सूत्र सिद्धान्त, परमाणु सिद्धान्त, भाषा विषयक मान्यताएँ हमें प्रेरणा देते हैं कि हम महावीर की वाणी से जुड़े। अपने दिव्य ज्ञान से महावीर ने जो अमृत हमें दिया है, उसका रसास्वादन कर हम जीवन को संस्कारित कर सके यही अपेक्षा है। युगों पूर्व धर्म दर्शन के क्षेत्र में किया गया महावीर का उद्दघोष आज भी प्रासंगिक और उपादेय है। पुण्य के उदयकाल में पाप स्तंभित नही होती। 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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