Book Title: Bhagvan Mahavira Trilok Guru Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 3
________________ सजीव प्राणी में होती है | स्थूल विद्युचुंबकीय शक्ति के सभी नियम सूक्ष्म विद्युचुंबकीय शक्ति को लागू होते हैं । जैसे एक चुंबक को दूसरे चुंबक के चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाय तो उसके समान ध्रुवों के बीच में अपाकर्षण व असमान ध्रुवों के बीच में आकर्षण होता है अर्थात् एक चुंबक का प्रभाव उसके क्षेत्र में आये हुए दूसरे चुंबक या पदार्थ ऊपर पड़ता है । वैसे ही| एक जीव के विचारों का प्रभाव उसके पास आये हुए दूसरे मनुष्य, प्राणी या पदार्थ के ऊपर पड़ता है । प्रत्येक पदार्थ के परिमंडल में भी विद्युचुंबकीय | क्षेत्र होता है जिसे आभामंडल कहा जाता है और किलियन फोटोग्राफी से| | उसकी तस्वीर भी ली जा सकती है । अतएव प्राचीन ऋषि-मुनिओं ने कहा है कि --: चित्रं वटतरोर्मूले, वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ।। (आश्चर्य है कि बड़ के पेड़ के नीचे बैठे हुए योगी-मुनिओं में शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवान हैं । इससे भी ज्यादा आश्चर्य यह है कि गुरु का मौन ही प्रवचन है और उससे शिष्यों के संशय दूर हो जाते हैं ।) इस प्रकार आध्यात्मिक रूप से विकसित गुरुओं के केवल सानिध्य से ही अनायास शिष्यों का आत्मिक विकास होता है और अचिन्त्य शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। ___ भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में भिन्न भिन्न संप्रदायों में भिन्न भिन्न पद्धति | से गुरु शिष्य को आशीर्वाद देते हैं । यही आशीर्वाद भी एक प्रकार का शक्तिपात ही है । सामान्यतः आशीर्वाद पाने का इच्छुक शिष्य आशीर्वाद देने वाले गुरु के चरणों में लीन होता है, नमस्कार करता है और गुरु के पैर पकडता है, उसी समय गुरु उसके मस्तक पर अपना हाथ रखते हैं| और आशीर्वाद देते हैं । इसी प्रक्रिया के दौरान गुरु के हाथ में से निकलता हुआ विद्युत् प्रवाह शिष्य के मस्तिष्क से होकर उसी शिष्य के हाथ में आता है और उससे गुरु के चरणस्पर्श करने पर गुरु के चरण द्वारा यही विद्युत् | प्रवाह गुरु में पुनः प्रविष्ट होता है । इस प्रकार विद्युत् प्रवाह का एक चक्र पूर्ण होने पर गुरु की शक्ति शिष्य में आती है । अन्य परंपरा में गुरु शिष्य के मस्तिष्क को सुंघते है । वहाँ भी ऐसा होता है । __जैन परंपरा में श्रमण भगवान महावीरस्वामी जैनियों के चौबीसवें 50 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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