Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ ( १३ ) मुनि गजसुकुमालादि दीसे तसुं बहूवेदना | ते कारण ए साधि, भजना इहां जणाय छे ॥ अथवा दूजो न्याय, कर्मनिर्जरा अति घणी । ते देखतां ताय, अल्पवेदना संभवे ॥ इसी प्रकार छठे शतक में भी शालि, ब्रीही आदि धान्यों की योनि - विध्वंस का सूत्रानुसारी काल निर्धारण करके चार सोरठों में उसका न्याय मिलाया गया है । बडा टबा में वाय, सजीवपणुं टली करी । aatavj चाय मिलतो अर्थ अछतिको ॥ सूको धान अजीव केश्क करें परूपण । पण इहां आयो जीव अर्थ अनूपम देखलो || दशकालिक देख, द्वितीय उद्देश पंचमभ्रमण । बावीसम उवेथ गाया में इहविध कहा ।। . चावल नो पहिछाण, आटो मिश्र उदक बली । शस्त्र अपरिणत जाण, ते काचा लेणां नहीं ॥ इसी प्रकार अनेक स्थलों में भ्रांति उत्पन्न करने वाले प्रसंगों में जयाचार्य ने अपनी सूक्ष्मग्राही मेधा का उपयोग कर पाठकों का मार्ग प्रशस्त किया है । अनुवाद शैली जयाचार्य ने भगवती मूल पाठ और उसकी वृत्ति का अनुवाद इतनी सहजता और सरलता से किया है कि संस्कृत और प्राकृत को नहीं समझने वाला पाठक भी अनुवाद के आधार पर मूलस्पर्शी अर्थबोध कर सकता है। कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं— समणोबासगरस भंते! पुब्बामेव तसपाणसमारंभ पच्चखाए भवइ, पुढवी समारंभे अपच्चक्खाए भवइ । से व पुढवि खगमाणे अण्णवरं तसं पाणं विहिंसेज्या, से णं भंते तं वयं अतिचरति ? हे भगवान! श्रावक तिको, पहिलांईज पिछाण । त्रस वधवो पचख्यो तिणे, पृथ्वी नां पचखाण || ते पृथ्वी खणते थके, कोइक त्रस हणाय' । तो प्रभु श्रावक व्रत तणो, अतिचार रूप भंग थाय ॥ XXX-XXX नमस्कार थावो मांहरो, भगवंत श्री महावीर । धर्म नी आदिकरण धुरा, शासणनाथ सधीर ॥ यावत मुक्ति जावा तणां वांछक तसु अभिलाख । धर्म आचारज मांहरा, धर्मोपदेशक साख ॥ नमोत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिग रस्स । जयाचार्य ने मूल सूत्र का अनुवाद किया हो या भाष्य, उसे पढ़ने से मूल ग्रन्थ को पढ़ने की इच्छा जागृत होती है । प्राकृत, संस्कृत आदि इस युग में अप्रचलित या कम प्रचलित भाषाओं को राजस्थानी में इस प्रकार रूपान्तरित कर देना अपनी मातृभाषा के प्रति उनके गहरे अनुराग, अनुभवों की प्रोढ़ता तथा सतत क्रियाशीलता का प्रतीक है । १. पृ० ११७, डा० १७, गा० ३२-३४ । २. पृ० १७४, ढा० १०६, गा० १३-१६ । ३. पृ० २०९, ढा० १११, गा० ६६,७० । ४. पृ० २६८, डा० १२६, गा० ७१,७२ । Jain Education International जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस धम्मोपदेसगस्त, सम्पादन यात्रा के सहयात्री "भगवती की जोड़” का संपादन श्रमसाध्य कार्य है । यह उन सबका अनुभव है, जो इस काम के साथ जुड़े हुए हैं। जोड़ के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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