Book Title: Bandhswamitva Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ २५४ जैन धर्म और दर्शन होता है । विकास की तेरहवीं भूमिका तक पहुँचे हुए---कैवल्य-प्राप्त-जीव में भी कषाय के सिवाय सब मार्गणाएँ पाई जाती हैं पर गुणस्थान केवल तेरहवाँ पाया जाता है । अंतिम-भूमिका-प्राप्त जीव में भी तीन-चार को छोड़ सब मार्गणाएँ होती हैं जो कि विकास की बाधक नहीं हैं, किंतु गुणस्थान उसमें केवल चौदहवाँ होता है। पिछले कर्मग्रन्थों के साथ तीसरे कर्मग्रन्थ की संगति-दुःख हेय है क्योंकि उसे कोई भी नहीं चाहता । दुःख का सर्वथा नाश तभी हो सकता है जब कि उसके असली कारण का नाश किया जाए। दुःख की असली जड़ है कर्म (वासना ) । इसलिए उसका विशेष परिज्ञान सब को करना चाहिए; क्योंकि कर्ग का परिज्ञान बिना किए न तो कम से छटकारा पाया जा सकता है और न दुःख से। इसी कारण पहले कर्मग्रन्थ में कर्म के स्वरूप का तथा उसके प्रकारों का बुद्धिगम्य वर्णन किया है। कर्म के स्वरूप और प्रकारों को जानने के बाद यह प्रश्न होता है कि क्या कदाग्रही-सत्याग्रही, अजितेन्द्रिय-जितेन्द्रिय, अशान्त-शान्त और चपल-स्थिर सब प्रकार के जीव अपने-अपने मानस-क्षेत्र में कर्म के बीज को बराबर परिमाण में ही संग्रह करते और उनके फल को चखते रहते हैं या न्यूनाधिक परिमाण में ? इस प्रश्न का उत्तर दूसरे कर्मग्रन्थ में दिया गया है । गुणस्थान के अनुसार प्राणीवर्ग के चौदह विभाग करके प्रत्येक विभाग की कर्म-विषयक बन्ध-उदय-उदीरणा-सत्ता'संबन्धी योग्यता का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार प्रत्येक गुणस्थान वाले अनेक शरीरधारियों की कर्मबन्ध आदि संबन्धी योग्यता दूसरे कर्मग्रन्थ के द्वारा मालूम की जाती है इसी प्रकार एक शरीरधारी की कर्मबन्ध-श्रादि-संबन्धी योग्यता, जो भिन्न-भिन्न समय में आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा अपकर्ष के अनुसार बदलती रहती है उसका ज्ञान भी उसके द्वारा किया जा सकता है । अतएव प्रत्येक विचार-शील प्राणी अपने या अन्य के आध्यात्मिक विकास के परिमाण का ज्ञान करके यह जान सकता है कि मुझ में या अन्य में किस-किस प्रकार के तथा कितने कर्म के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता की योग्यता है। उक्त प्रकार का ज्ञान होने के बाद फिर यह प्रश्न होता है कि क्या समान गुणस्थान वाले भिन्न-भिन्न गति के जीव या समान गुणस्थान वाले किन्तु न्यूनाधिक इन्द्रिय वाले जीव कर्म-बन्ध की समान योग्यता वाले होते हैं या असमान योग्यता वाले ? इस प्रकार यह भी प्रश्न होता है कि क्या समान गुणस्थान वाले स्थावर-जंगम जीव की या समान गुणस्थान वाले किन्तु भिन्न-भिन्न योग-युक्त जीव की या समान गुणस्थान वाले भिन्न-भिन्न लिंग (वेद) धारी जीव की या समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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