Book Title: Balbramhacharinya Shrimatya Kusumvatya Satya Yash Saurabham Author(s): Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 5
________________ __ अर्थ-कष्ट उठाकर भी जिनमुनिजन जीव जाति की रक्षा करते हैं, सत्य को कष्ट सहकर भी ST सिखाते हैं, किन्तु स्वार्थी संसारी, धन के लोभी मनुष्य ऐसे मुनियों का वास्तविक स्वरूप कैसे जान k सकते हैं। एते सर्वे विरक्ताः परमसुमतयो मुक्तिमार्गप्रसक्ताः एवं सत्योऽप्यनेका विहृतिपरवशा जैनधर्म वहन्त्यः । लोकान् भोगानुरक्तान् विकृतिरसयुतान् हिंसकान बोधयन्त्यः, भिक्षावृत्ति दधत्यो जनजनविषये संति धन्या महत्यः ॥२०॥ ___ अर्थ-किन्तु फिर भी उपकारी मुनिजन इन हिंसक मनुष्यों को समझाते ही रहते हैं। इसी या प्रकार सतीजन भी उन सबको समझाती रहती हैं । यह जैनधर्म का विस्मयकारक महत्व है । दृष्ट्वाऽप्येवं विरक्तान जिनवररसिकान सन्मुनीन्द्रा जगत्याम्, भोगासक्तास्तु लोकाः कलहविषरता भुञ्जते पापभोगान् । कुयु: किं ते मनुष्याः परहितविषये नामधर्मस्य नीती, सिद्धि सम्प्राप्य कांचित् परजनसुकरं जैनधर्म वहेयुः ॥२१।। अर्थ-इतने पर भी ये संसारी मनुष्य लड़ाई-झगड़ों में लगे रहते हैं, इन पावन मुनियों के उपदेश को ग्रहण नहीं करते और पाप कमाते रहते हैं, किन्तु कुछ मिल जाने पर उसी में प्रसन्न रहते हैं। और सत्य की उपेक्षा करते हैं। ज्ञात्वा सर्व रहस्यं मनसि मम पुनर्जायते काऽपि शङ्का, रागांस्त्यक्त्वाऽपि सर्वान् कथमिह मुनयः पालयेयुः स्वकीत्तिम् । कीतलुब्धा मुनीन्द्रा यदपि सुतपसः संति केचित् पृथिव्याम्, आनीयुः केऽपि लोके परमहमखिलं मूढचेता न जाने ।।२२।। अर्थ-परन्तु सब कुछ त्यागने पर भी मुनिजन कुछ ऐसे भी हैं कि वे अपनी कीति की लालसा र रखते हैं, यह देखकर मैं आश्चर्य में डूब जाता है, किन्तु इसका उत्तर सुनकर भी मैं ऐसा मूर्ख हूँ कि उनके समाधान पर भी मेरी समझ में कुछ नहीं आता। दृष्ट्वतन्मानसेऽहं सुविमलतपसं तापसी सत्यरूपाम्, मिथ्याश्लाघामयेऽस्मिन् मुनिजनविमले केवलां कोमलां त्वाम् । स्तूयाल्लोकेऽधुना कः सरलगतिरति चिन्तयेयं सदैवम्, श्रद्धां बध्वाऽप्यधीरो मुनिजनकमलं वीरदेवं भजेऽहम् ।।२३।। अर्थ-यह सब देखकर मैं अपने मन में, पवित्र तपस्विनी सच्ची साध्वी आपकी, केवल सीधी मुनिजनों के विमल मिथ्याश्लाघामय संसार में, सीधी गति पर प्रेम रखने वाली की, कौन प्रशंसा श्रा करेगा ? ऐसा मैं सदा उधेड़-बुन में लगा रहता हूँ । अतएव मैं घबड़ाकर श्रद्धा को बाधकर वीर प्रभु की आराधना करता रहता हैं। आश्चर्य वर्तते मे मनसि हृतजगत् जैनधर्मस्य साधुः, सर्वं त्यक्त्वाऽपि भूमौ यशसि परिगतः साधकः सर्वथाऽयम्, जाने सर्व रहस्यं तदपि गुणमयं वृत्तमस्त्येव लोके, तस्मान्मन्ये सदाऽह किमपि तु जगतः कारणं तद् विचित्रम् ॥२४॥ अर्थ--मेरे मन में आश्चर्य होता है कि सर्वत्यागी जैनधर्म के मुनिराज संसार छोड़कर भी इस सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन || ५३४ - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Ging Jain Education International Por fivate & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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