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(द्रव्यदृष्टि को निश्चय कह कर), पर्यायदृष्टि को गौण करते हुए (उसे व्यवहार कह कर) उपदेश दिया है। पर्यायदृष्टि-विषयक वस्तु-अंश को वहां अभूतार्थ-असत्यार्थ भी कहा है, क्योंकि द्रव्यदृष्टि के विषय के अन्तर्गत उसका (पर्यायदृष्टि-विषयक वस्तु-अंश का) अभाव है ही। दूसरी ओर, द्रव्यदृष्टि के विषय को वहां भूतार्थ कहा है। इस कथन का अभिप्राय ऐसा नहीं समझना चाहिये कि वस्तु की सत्ता में पर्यायदृष्टि अथवा उसके विषय का अस्तित्व ही नहीं है। बल्कि यह समझना चाहिये कि द्रव्यदृष्टि जिस विषय (वस्तु-अंश) को लक्ष्य करती है, उस वस्तु-अंश में पर्यायदृष्टि का विषय नहीं है, हालाँकि वस्तु तो द्रव्य-पर्यायात्मक ही है।
अतः जहाँ आचार्य कहते हैं कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, वहाँ उनका अभिप्राय ऐसा समझना चाहिये कि यद्यपि मात्र द्रव्यदृष्टि के विषय का श्रद्धान सम्यक्त्व नहीं है, तथापि द्रव्यदृष्टि के अनुसार आत्म-वस्तु के स्वरूप का श्रद्धान करने से, वर्तमान में पर्यायदृष्टि-विषयक जो अनादिकालीन, मिथ्या, एकान्त श्रद्धान इस जीव के चल रहा है, वह मिट कर, द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु का सही श्रद्धान हो जाएगा – सो ही सम्यक्त्व है। जब आचार्य कहते हैं कि आत्मा रागादिक भावों का कर्ता नहीं है तो इसका अर्थ समझना चाहिये कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा को रागादिक का कर्ता मानने से रागादिक भाव, जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों की भांति ही, आत्मा के स्वभाव ठहर जाएंगे। और, यदि रागादिक को अपना स्वभाव इस जीव ने मान लिया तो यह उनका कभी अभाव नहीं कर सकेगा।
द्रव्यदृष्टि के अनुसार जब जीव और रागादिक भावों की उक्त स्थिति है, तभी — उसी समय – पर्यायदृष्टि से देखने पर यह जीव स्वयं ही रागादिक का कर्ता है। इन विकारी भावों के आत्मा के अस्तित्व में होने की पूरी जिम्मेवारी इस आत्मा की है – न केवल इन्हें करने की, बल्कि इन्हें मिटाने की जिम्मेवारी भी इसी की है। पर्यायमूढ़ जीव स्वयं को रागादिक का कर्ता द्रव्यदृष्टिवत् मानता है, इसलिये अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है। इसी प्रकार, द्रव्यमूढ जीव, जो पर्यायदृष्टि से भी स्वयं को रागादिक का कर्ता अथवा जिम्मेवार नहीं मानता, वह भी उतना ही अज्ञानी है,