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द्रव्य-पर्यायात्मक आत्म-वस्तु के दोनों पक्ष - वस्तु-सामान्य या द्रव्य-स्वभाव, और परिणमन - जीवन में साथ-साथ चलते हैं। आत्म-वस्तु के स्वरूप का कथन अथवा चिंतवन करते हुए तो उसका कोई एक पक्ष मुख्य अथवा गौण होता है, परन्तु जीवन में दोनों पक्ष मुख्यता अथवा गौणता से रहित, एकसाथ होते हैं। जब जीव का रागरूप परिणमन हो रहा है तभी सम्यक् श्रद्धा वहां कह रही है कि ये रागादिक भाव मेरे स्वभाव नहीं, अपितु विकार हैं। मेरी पर्याय में दोष हैं, ऐसा ज्ञान-श्रद्धान उसी समय होता है जिस समय द्रव्यदष्टि-विषयक सही/सम्यक् श्रद्धा रहती है। इसलिये आत्म-वस्तु के सामान्य-विशेषात्मक अथवा द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप का सही प्रकार से ज्ञान करना जरूरी है। हमें अपने जीवन में द्रव्यदष्टि और पर्यायदष्टि दोनों के विषयों को सापेक्ष लेकर चलना चाहिये और वस्तु-तत्त्व का निरूपण भी उसी प्रकार करना चाहिये।
समयसार का अध्ययन करके यदि हमने मात्र द्रव्यदृष्टि के विषय का ज्ञान-श्रद्धान किया है और उसके फलस्वरूप अपने जीवन में भी यदि हम द्रव्यदृष्टि के विषय को पर्यायदृष्टि-निरपेक्ष लेकर चलते हैं, तो हमारा ऐसा ज्ञान-श्रद्धान-आचरण हमारी आत्मा को शुद्ध बनाने में कभी भी सहायक नहीं हो सकेगा। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य का समयसार की रचना के पीछे ऐसा उद्देश्य कदापि नहीं था।
हमारा जो सोच-विचार है, जो सूझ-बूझ है, उसका अपने जीवन में उपयोग हमें इस प्रकार करना है कि जिनवाणी के अभिप्राय को पहले तो हम स्वयं सही रूप में समझें, और फिर उसको इस प्रकार प्रस्तुत करें कि जनसाधारण भी सही रूप में समझ सके। समयसार का अध्ययन हम यह समझ कर करें कि यह ग्रन्थ मुख्यता से अनादिकालीन पर्यायमूढ़ को सम्बोधित करने के लिये रचा गया है। इसलिये इसमें द्रव्यदृष्टि की मुख्यतापूर्वक उपदेश दिया गया है, क्योंकि द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु-स्वरूप का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से कोई ऐसा मिथ्या अभिप्राय कदापि ग्रहण न करे कि मात्र द्रव्यदृष्टि-विषयक वस्तु-अंश का श्रद्धान सम्यक्त्व है। अगले पृष्ठ पर दी गई सारिणी समयसार में उपदिष्ट