Book Title: Atm Sadhna aur Acharya Hastimalji
Author(s): Premchand Ranvaka
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • १७७ नाम दिया है। जहाँ ये चारों अस्तित्वशील हैं, धर्म तीर्थ प्रवाहमय रहेगा। साधु-साध्वी त्यागी वर्ग है, श्रावक-श्राविका गृही हैं। जैन धर्म के पथ में ये दो वर्ग बराबर रहते हैं। जैसे नदी दो तटों के बीच बहती हुई समुद्र तक चली जाती है, वैसे ही धर्म के ये दो तट हैं। इनके द्वारा प्रवाहित हुमा धर्म परम धाम सिद्धालय तक पहुँच जाता है। जहाँ साधु-साध्वीगण हैं वह समाज आदर्श रूप होगा। साधु-स्वयं आत्म-साधक बन समाज को भी उस ओर प्रेरित करता है। इस दृष्टि से साधु-समाज दोनों मिलकर राष्ट्र की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उन्नति में भागीदार होते हैं। पं. आशाधरसूरि 'सागार धर्मामृत' में कहते हैं-आत्म-साधना के मार्ग में सज्जनों को प्रेरित करें। जैसे पुत्र के अभाव में वंश के चलाने के लिये दत्तक पुत्र लिया जाता है, उसी प्रकार धर्म संघ संचालन के लिये त्यागीसाधुओं की आवश्यकता है। क्योंकि 'न धर्मों धार्मिकैविना'-धार्मिक समाज के बिना धर्म की अवस्थिति नहीं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर आज तक साधु व समाज की अव्याबाध अविच्छिन्न परम्परा चली आ रही है। और जब तक दीक्षा-शिक्षा की परम्परा समाज में चलती रहेगी, धर्म भी अव्याबाध गति से चलता रहेगा। भारतीय धर्म-दर्शनों में चार्वाक के 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्, भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः' को छोड़कर सभी दर्शनों में आत्म-ज्ञान को इतर भौतिक ज्ञानों से सर्वोपरि व सर्वश्रेष्ठ माना है। उपनिषद् तो प्रात्म-ज्ञान के ही विवेचक ग्रंथ हैं । 'आत्मानं विद्धि' प्रमुख सूत्र है । नीतिकार कहते हैं "लब्धा विद्या राजमान्या तत: किं, प्राप्ता सम्पद्व भवाद्या ततः किम् । भुक्ता नारी सुन्दराङ्गी ततः किं, येन स्वात्मा नैव साक्षात्कृतोऽभूत् ।।" याज्ञवलक्य ऋषि से मैत्रेयी ने निवेदन किया-भगवन् ! जिस वस्तु को आप छोड़ रहे हैं, क्या उससे हमारी आत्मा का हित हो सकता है ? यदि नहीं तो हम उसे क्यों ग्रहण करें? हम भी आपके साथ ही आत्म-साधना में रहेंगे । प्रा. वादीभसिंह कहते हैं 'कोऽहं कीदृग्गुणः क्वत्यः किं प्राप्यः किं निमित्तकः । इत्यूह प्रत्यूहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ।।" जो मनुष्य प्रातः एवं रात्रि को सोते समय (त्रिकाल संध्या, पांच बार नमाज) प्रतिदिन इस प्रकार अपनी अवस्थिति पर विचार करते हैं, उनकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4