Book Title: Astik aur Nastik
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 9
________________ आस्तिक और नास्तिक विषय में कहते तो लोग उन्हें भारी नास्तिक और मूर्ख मानते और मनुके. उत्तराधिकारियोंकी चलती तो वे उनको शूली पर चढ़ा देते । इस भाँति जय कट्टर प्राचीनताप्रेमियोंने आवेशमें आकर बिना विचार किये चाहे जैसे विचारक और योग्य मनुष्यको भी अप्रतिष्ठित करने के लिए तथा लोगों को उसके विरुद्ध उकसाने के लिए नास्तिक जैसे शब्दोंका व्यवहार किया, तब इन शब्दोंमें भी क्रान्तिका प्रवेश हो गया और इनका अर्थ-चक्रः बदलने के अतिरिक्त महत्ता-चक्र बदलने लगा और आज तो लगभग ऐसी स्थिति आ गई है कि राजद्रोह की तरह ही नास्तिक, मिथ्यादृष्टि आदि शब्द भी मान्य होते चले जा रहे हैं । कदाचित् ये पर्याप्त रूप में मान्य प्रमाण न हुए हों, तो भी अब इनसे डरता तो शायद ही कोई हो । उलटे जैसे अपनेको राजद्रोही कहलानेवाले बहुत से लोग दिखाई देते हैं वैसे बहुत लोग तो निर्भयतापूर्वक अपनेको नास्तिक कहलाने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं करते और जब अच्छे अच्छे विचारकों, योग्य कार्यकर्ताओं और उदारमना पुरुषोंको भी कोई नास्तिक कहता है तब आस्तिक और सम्यग्दृष्टि शब्दोंका लोग यहीं अर्थ करने लगे हैं कि जो सच्ची या झूठी किसी भी पुरानी रूढ़िसे चिपके रहते हैं, उसमें औचित्य अनौचित्यका विचार नहीं करते, किसी भी वस्तुकी परीक्षा या तर्क- कसोटी सहन नहीं करते, खरी या खोटी किसी बातकी शोध किए बिना प्रत्येक नये विचार, नई शोध और नई पद्धतिसे भड़कने पर भी कालक्रमसे परवश होकर उनका स्वीकार कर लेते हैं, वे आस्तिक और सम्यग्दृष्टिः हैं । इस तरह विचारक और परीक्षक या तर्कप्रधान अर्थमें नास्तिक आदि शब्दों की प्रतिष्ठा जमती जाती है और कदाग्रही, धर्मात्मा, आदिके अर्थम आस्तिक आदि शब्दोंकी दुर्दशा होती देखी जाती है। उस जमाने में जब शस्त्रसे लड़ने के लिए कुछ नहीं था तब हरेककी लड़नेकी वृत्ति तृप्त करनेका यह शाब्दिक मार्ग ही रह गया था और नास्तिक या मिथ्यादृष्टि शब्दों के गोले फेंके जाते थे। परन्तु आज अहिंसक युद्धने जिस तरह शस्त्रोंको निष्क्रिय बना दिया है, उसी तरह नास्तिक आदि शब्दों को, जो विषमय शस्त्रोंकी भाँति चलाये जाते थे, निर्विष और काफी मात्रा में जीवन-पद अमृत जैसा भी बना दिया है। यह क्रान्ति-युगका प्रभाव है । परन्तु इससे किसी विचारक या सुधारकको फूलकर अपना कर्तव्य Jain Education International ५९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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