Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 7
________________ किया है जो कि अद्यावधि उसी रूपमें प्रवाहित होकर चला आरहा है। वह स्वामीजीके अलौकिक पांडित्य तथा उनकी पवित्र आत्मपरिणति का ही प्रभाव है स्वामीकुन्दकुन्दाचार्यने अवतरित होकर इस भारतभूमिको किस समय भूषित तथा पवित्रित किया इस विषयका निश्चितरूपसे अभीतक किसी विद्वान्ने निर्णय नहीं किया क्योंकि कितने ही विद्वानोंने सिर्फ अन्दाजेसे इनको विक्रमकी पांचवी और कितनेही विद्वानोंने तीसरी शताब्दिका होना लिखा है तथा बहुतसे विद्वानोंने इनको विक्रमकी प्रथम शताब्दिमें होना निश्चित किया है और इस मत परही प्रायःप्रधान विद्वानोंका झुकाव है । संभव है कि यही निश्चित रूपमें परिणत हो। परंतु मेरा दिल इनको विक्रमकी पहली शताब्दिसे भी बहुत पहलेका कबूल करता है कारण कि स्वामीजीने जितने ग्रंथ बनाये हैं उन किसीमें भी द्वादशानुप्रेक्षाके अंतमें नाममात्रके सिवाय आपना परिचय नहीं दिया है परंतु बोध पाहुडके अंतमें नंबर ६१ की एक यह गाथा उपलब्ध है सद्दवियारो भूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य महाबाहुस्स॥ बोधपाहुड़ ॥ ६१ ॥ मुझे इस गाथाका अर्थ गाथाकी शब्द रचनासे ऐसा भी प्रतीत होता है। जं-यत् जिणे-जिनेन, कहिय-कथितं, सो-तत्, भासासुत्तेसु-भाषासूत्रेषु ( भाषारूपपरिणतद्वादशांगशास्त्रेषु ), सद्दवियारोभूओ-शब्दविकारो भूतः ( शब्दविकाररूपपरिणतः ) भद्दबाहुस्स-भद्रबाहोः सीसेणय-शिष्येनापि । तह-तथा, णायं-ज्ञातं, कहियं-कथित्तं । जो जिनेन्द्रदेवने कहा है वही द्वादशांगमें शब्दविकारसे परिणत हुआ है और भद्रबाहुके शिष्यने उसी प्रकार जाना है तथा कहा है। ___ इस गाथा मैं जिन भद्रबाहुका कथन आया है वे भद्रबाहु कोन हैं, इसका निश्चय करनेके लिये उनके आगेकी नं ६२ की गाथा इस प्रकार है । बारस अंगवियाणं चउदस पुवंग विउल वित्थरणं । सुयणाणि भहबाहू गमयगुरू भयवओ जयओ ॥ बोधपाहुड़ ॥ ६२॥ द्वादशाङ्गके ज्ञाता तथा चौदह पूर्वांगका विस्तार रूपमें प्रसार करनेवाले गमकगुरू श्रुतज्ञानी भगवान भद्रबाहु जयवंते रहो।

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