Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 5
________________ मिलती है उसकी, जो प्रयोजन-हीन है, जिसका कोई अर्थ नहीं; फिर भी परम रसमय है, फिर भी परम विभामय है; फिर भी सच्चिदानंद है। कोई आदमी बैठकर अपनी सितार बजा रहा है। तुम उससे पूछो कि 'क्या मिलेगा इससे?' वह उत्तर न दे पाएगा। 'क्या सार है इस तार को ठोकने, खींचने, पीटने से? बंद करो। कुछ काम करो कुछ काम की बात करो। कुछ उपजाओ, कुछ पैदा करो! फैक्टरी बनाओ, खेत में जाओ! ये तार छेड़ने से क्या सार है?' लेकिन जिसको तार छेड़ने में रस आ गया, वह कभी-कभी भूखा भी रह जाना पसंद करता है और तार नहीं छोड़ता। विन्सेंट वानगॉग भूखा- भूखा मरा। उसके पास इतने ही पैसे थे... उसका भाई उसे इतने ही पैसे देता था कि सात दिन की रोटी खरीद सकता था। तो वह तीन दिन खाना खाता, चार दिन भूखा रहता। और जो पैसे बचते, उनसे खरीदता रंग, कैनवस, और चित्र बनाता। चित्र उसके एक भी बिकते नहीं। क्योंकि उसने जो चित्र बनाए, वे कम-से-कम अपने समय के सौ साल पहले थे। दुनिया की सारी प्रतिभा समय के पहले होती है। वस्तुत: प्रतिभा का अर्थ ही यही है, जो समय के पहले हो। कोई खरीददार न था उन चित्रों का। अब तो उसका एक-एक चित्र लाखों में बिकता है, दस-दस लाख रुपये में एक-एक चित्र बिकता है। तब कोई दस पैसे में भी खरीदने को तैयार न था। वह भूखा ही जीया, भूखा ही मरा। घर के लोग हैरान थे कि तू पागल है! आदमी की भूख पहली जरूरत है, लेकिन कुछ मिल रहा होगा वानगॉग को, जो किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा था। कोई रसधार बह रही होगी! नहीं तो क्यों, क्या प्रयोजन? न प्रतिष्ठा मिल रही है, न नाम मिल रहा है, न धन मिल रहा है; भूख मिल रही, पीड़ा मिल रही, दरिद्रता मिल रही-लेकिन वह है कि अपने चित्र बनाए जा रहा है। जब वह चित्र बनाने लगता तो न भूख रह जाती, न देह रह जाती-वह देहातीत हो जाता। जब उसके सारे चित्र बन गए, जो उसे बनाने थे, तो उसने आत्महत्या कर ली। और वह जो पत्र लिखकर छोड़ गया, उसमें लिख गया कि अब जीने में कुछ अर्थ नहीं रहा। __ अब यह बड़े मजे की बात है। वह लिख गया कि जो मुझे बनाना था, बना लिया; जो मुझे गुनगुनाना था, गुनगुना लिया, जो मुझे रंगों में ढालना था, ढाल दिया; जो मुझे कहनी थी बात, कह दी; जो मेरे भीतर छिपा था, वह प्रगट हो गया; अब कुछ अर्थ नहीं है रहने का। वह जो अर्थहीन चित्र बना रहा था, वही उसका अर्थ था; जब उसका काम चुक गया, वह विदा हो गया। जीवन में जैसे कोई और अर्थ था नहीं! क्या फायदा रोटी रोज खा लो, फिर भूख लगा लो फिर रोटी रोज खा लो, फिर भूख लगा लो? हर रोटी नई भूख ले आती है, हर भूख नई रोटी की मांग ले आती है। यह तो एक वर्तुल हुआ जिसमें हम घूमते चले जाते हैं। इससे सार क्या है, तुमने कभी सोचा? एक आदमी अगर अस्सी साल जीए तो अस्सी साल में उसने किया क्या? जिसको तुम अर्थपूर्ण प्रक्रियाएं कहते हो-रोटी, रोजी, मकान-उसने किया क्या? जरा तुम गौर करो। न मालूम कितने हजारों मन भोजन उसने मल-मूत्र बना दिया। इतना ही काम किया। जरा सोचो, अस्सी साल में उसने कितने पचासगमन

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