Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House Puna View full book textPage 4
________________ कि सब दुख भी समाप्त हो जाए और आनंद न मिले तो सार क्या है? एक आदमी है जिसे न कोई बीमारी है, न कोई कष्ट है, न कोई आर्थिक परेशानी है, सब सुख-सुविधा है- मकान है, कार है, प्रतिष्ठा है- अब और क्या चाहिए? सब आवश्यकताएं पूरी हो गईं, अब और क्या चाहिए? लेकिन वह आदमी भी कहता है कुछ खाली - खाली है, कुछ लगता है खो रहा है, कुछ मिला नहीं! जब तक तुम प्रयोजन - शून्य से संबंध न बांधो, जब तक तुम आवश्यकता के ऊपर उठकर न देखो, जब तक तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा न घटे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी - तब तक आनंद न घटेगा। आवश्यकता के मिटने से पूरे होने से दुख नहीं होता, सुविधा हो जाती है; आनंद भी नहीं होता। आनंद तो घटता है तब जब तुम आवश्यकता के पार उठते हो- अर्थ - शून्य में, फूलों में, संगीत में, काव्य में। कोई जरूरत नहीं है। वैजनर हो या न हो, शेक्सपियर हो या न हो, रवींद्रनाथ हों या न हों-क्या सार है? खाओगे कविताओं को, पीयोगे, ओढोगे? लेकिन यह तो मैं इसलिए नाम ले रहा हूं कि तुम्हें समझ में आ जाएं। इनमें भी थोड़ा-बहुत अर्थ हो सकता है। परमात्मा में उतना भ नहीं है। आत्मज्ञान तो बिलकुल ही निरर्थक है। उसका होने का रस तो है, अर्थ बिलकुल नहीं। उसे तुम 'कमोडिटी', बाजार में बिकने वाली वस्तु न बना सकोगे। जिस दिन कोई व्यक्ति इस सत्य को समझने में समर्थ हो जाता है कि जब तक मैं आवश्यकता की पूर्ति खोजता रहूंगा, तब तक मैं एक वर्तुल में घूमूंगा। रोज भूख लगेगी रोज खाना कमा लूंगा, रोज खाना खा लूंगा, फिर भूख मिट जाएगी, कल फिर भूख लगेगी। फिर भोजन, फिर भूख, फिर भोजन । भोजन से कुछ सुख न मिलेगा; सिर्फ भूख से जो दुख मिलता था, वह न होगा। सांसारिक आदमी की परिभाषा यही है- जो केवल सुविधा खोज रहा है, असुविधा न हो । आध्यात्मिक आदमी का अर्थ यही है कि जो इस सत्य को समझ गया कि सुविधा सब भी मिल जाए तो जीवन में फूल नहीं खिलते, न सुगंध उठती, न गीत बजते । नहीं, जीवन की वीणा खाली ही पड़ी रह जाती है। इसलिए मैं धर्म को आभिजात्य कहता हूं। आभिजात्य का अर्थ है. इसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह प्रयोजन-हीन, प्रयोजन- शून्य या कहो प्रयोजन- अतीत। और तुम्हारे जीवन में जब भी कभी कोई प्रयोजन - अतीत उतरता है, वहीं थोड़ी-सी झलक आनंद की मिलती है; जैसे प्रेम में। प्रेम का क्या अर्थ है, क्या सार है? खाओगे? पीयोगे ? ओढोगे? क्या करोगे प्रेम का न अगर कोई तुमसे पूछने लगे कि क्या पागल हो रहे हो, प्रेम से फायदा क्या है? बैंक - बैलेंस तो बढ़ेगा नहीं। मकान बड़ा बनेगा नहीं। प्रेम से फायदा क्या है? क्यों समय गंवाते हो ? इसलिए तो राजनीतिज्ञ प्रेम-प्रेम के चक्कर में नहीं पड़ता वह सारी शक्ति पद पर लगाता, प्रेम पर नहीं। धन का दीवाना, धन का आकांक्षी, सारी शक्ति धन को कमाने में लगाता है। प्रेम, वह कहता है, अभी नहीं! अभी फुर्सत कहां? फिर प्रेम का प्रयोजन भी कुछ नहीं दिखाई देता - स्व तरह का पागलपन मालूम होता है। तुम व्यावहारिक लोगों से पूछो, वे कहेंगे, प्रेम यानी पागलपन। लेकिन प्रेम में थोड़ी-सी झलकPage Navigation
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