Book Title: Arthadhigama Chintan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ अर्थाधिगम-चिन्तन अन्तः और बाह्य पदार्थोंके ज्ञापक साधनोंपर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में विचार किया गया हैं और सबने अर्थाधिगमका साधन एकमात्र प्रमाणको स्वीकार किया है । ' प्रमाणाघीना हि प्रमेयव्यवस्था', 'मानाधीना हि मेयस्थितिः', 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि' जैसे प्रतिपादनों द्वारा यही बतलाया गया है कि प्रमाण ही प्रमेयकी सिद्धि अथवा व्यवस्था या ज्ञानका साधन है, अन्य कोई नहीं । जैन दर्शनमें अर्थाधिगमके साधन पर जैन दर्शनमें प्रमाणके अतिरिक्त नयको भी पदार्थोके अधिगमका साधन माना गया है । दर्शन क्षेत्र में अधिगमके इन दो उपायोंका निर्देश हमें प्रथमतः 'तत्त्वार्थसूत्र' में मिलता है । तत्त्वार्थसूत्रकारने लिखा है कि तत्त्वार्थका अधिगम दो तरहसे होता है : -- १. प्रमाणसे और २. नयसे । उनके परवर्ती सभी जैन विचारकों का भी यही मत है । यहाँ उन्होंके सम्बन्धमें कुछ विचार किया जाता है । प्रमाण अन्य दर्शनों में जहाँ इन्द्रियव्यापार, ज्ञातृव्यापार कारकसाकल्य, सन्निकर्ष आदिको प्रमाण माना गया है और उनसे ही अर्थ- प्रमिति बतलाई गई है वहाँ जैन दर्शन में स्वार्थ व्यवसायि ज्ञानको प्रमाण कहा गया है और उसके द्वारा अर्थ परिच्छित्ति स्वीकार की गई है । इन्द्रिय-व्यापार आदिको प्रमाण न मानने तथा ज्ञानको प्रमाण माननेमें जैन चिन्तकोंने यह युक्ति दी है कि ज्ञान अर्थ-प्रमितिमें अव्यवहितसाक्षात् करण है और इन्द्रियव्यापार आदि व्यवहित- परम्परा करण हैं तथा अव्यवहित करणको ही प्रमाजनक मानना युक्त है, व्यवहितको नहीं । उनकी दूसरी युक्ति यह है कि प्रमिति अर्थ - प्रकाश अथवा अज्ञान - निवृत्तिरूप है वह ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, अज्ञानरूप इन्द्रियव्यापार आदिके द्वारा नहीं । प्रकाशद्वारा ही अन्धकार दूर होता है, घटपटादिद्वारा नहीं । तात्पर्य यह कि जैनदर्शनमें प्रमाण ज्ञानरूप है और वही अर्थ परिच्छेदक है । प्रमाणसे दो प्रकार की परिच्छित्ति होती है: - १. स्पष्ट (विशद) और २. अस्पष्ट ( अविशद ) । जिस ज्ञानमें इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि परकी अपेक्षा नहीं होती वह ज्ञान स्पष्ट होता है तथा असन्दिग्ध, अवि १. 'प्रमाणनयैरधिगमः ' -- तत्त्वार्थसू० १-६ | २. (क) 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनय-संस्कृतम् ॥' - समन्तभद्र, आप्तमी० का० १०१ । (ख) प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्व्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् ।' २९ Jain Education 'International - अभिनव धर्मभूषण, न्यायदी० पृ० ४ । २२५ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5