Book Title: Arhat Aradhana ka Muladhar Samyag Darshan
Author(s): Malla Muni
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ २८६ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय प्रशस्त पथ पर दृढ़ विश्वास का होना ही आस्तिकता की व्यावहारिक भूमिका है. आस्तिकता, आस्था और श्रद्धा सभी एक ही अर्थ का द्योतन करने वाले शब्द हैं. विश्वास भी इन्हीं के अन्तर्गत आता है. बहुत से व्यक्ति आस्तिकता, का सही अर्थ न समझने के कारण अपने आप को नास्तिक कहते हैं. अस्ति का अर्थ है स्थिति या अस्तित्व को स्वीकार करना. इस अभेदमूलक दृष्टि से सभी आस्तिकता के अन्तर्गत आ जाते हैं. नास्तिकता जैसी कोई चीज फिर अस्तित्व में नहीं रहती. पर आस्तिकता को किसी अर्थ विशेष में रूढ़ कर देने के कारण ये सभी विकृतियां उत्पन्न हो गई हैं. आस्था के अभाव में व्यक्ति का विकास निश्चित रूप से अवरुद्ध हो जायेगा. जब लक्ष्य और उद्देश्य के प्रति ही व्यक्ति की आस्था नहीं रहेगी तब दृढ़ता और संकल्प भी उसे सिद्धि के सोपान तक नहीं पहुँचा सकते. साधना के पांव लड़खड़ा उठें और विकास की गति अवरुद्ध हो जाएगी. अतः आस्तिकता, आस्था अथवा श्रद्धा की सहज स्मित- रेखा में साधना और विकास को ग्रथित करना होगा. आस्था के इस सूत्र में वलयित होने पर सम्यक्त्व की भूमिका प्रशस्त और अबाधित हो जायेगी. इस प्रकार सम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य, ये पांच लक्षण सम्यक्त्वी के हैं. इनका स्वरूप सम्यक्त्वी के जीवन में परिलक्षित होना ही चाहिये. सम्यक्त्व साधक सम्यक्त्व की रक्षा के लिए सतत सावधान रहता है. जागृति जीवन का लक्षण है. अजागृति मरण का प्रतीक है. जागृत मनुष्य ही विकृतियों से अपनी रक्षा कर सकता है. असावधानता की अवस्था में जो शिथिलता या विकृति आती है उसे अतिचार कहते हैं. सम्यक्त्व भी एक व्रत है. उसे शुद्ध व निर्मल रखने के लिए पांच अतिचारों से बचना चाहिये. वे अतिचार ये हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर- पाखण्ड प्रशंसा और पर-पाखण्डसंस्तव. सम्यक्त्व प्राप्ति के साधन एवं साधना में संशय करना शंका है. शंका-शील व्यक्ति किसीभी विषयका विशेषज्ञ नहीं हो सकता क्योंकि मूल तत्त्वों पर अविश्वास रखने के कारण वह पुरुषार्थ की साधना करने में असमर्थ रहता है. 'संशयात्मा विनयति' इस उक्ति के अनुसार संशयी अपनी शक्ति का नाश करता है और स्वयं का भी नाश करता है. सम्यक्त्वी साधक शंकाशील नहीं रहता. वह सदसद् विवेकिनी बुद्धि के द्वारा तत्त्वों का यथार्थ समाधान प्राप्त करता है जो अदृष्ट तत्त्व बुद्धि की पकड़ में नहीं आते, उन्हें आप्तोपदिष्ट मानकर अपनी शंकाओं का निरसन कर लेता है, आप्तपुरुष यथार्थ ज्ञाता एवं वक्ता होते हैं. क्षीणदोष होने के कारण उनकी वाणी में किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं होती. सम्यक्त्वी की यह दृढ़ श्रद्धा होती है कि " तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं " ३ ज्ञानप्राप्ति एवं तत्त्वनिर्णय के लिए जो शंका की जाती है, वह अतिचार की कोटि में नहीं आती. " न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति. " जो सिद्धान्त, साधना तथा क्रियाकाण्ड सम्यक्त्व के परिपोषक न हों वे सभी परधर्म हैं, पय-धर्म की चाह करने को 'कांक्षा' कहते हैं. गीता में 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' कहकर इसी तथ्य का समर्थन किया गया है. धर्म के दो रूप हैं, स्वधर्म और परधर्म. आत्मगुणों की अभिव्यंजक एवं स्वस्वरूप- रमण में स्थिर करने वाली प्रक्रिया स्वधर्म है. परधर्म की प्रक्रिया इससे प्रतिकूल है. स्व-पर-धर्मात्मक परस्पर विरोधी साधनों में मनोयोग बिखर जाने से कांक्षाशील साधक सम्यक्त्व को न तो सुरक्षित रख सकता है और न पुष्ट ही कर सकता है. आराधना के फल के प्रति संदेह करना 'विचिकित्सा' है. मेरी साधना, जप, तप, एवं पुरुषार्थं का फल मिलेगा या नहीं, ऐसा संदेह विचिकित्सा का परिणाम है. इससे पुरुषार्थ के प्रति अनास्था पैदा होती है. तन्मयता के द्वारा ही साधक अपनी मनःस्थिति को केन्द्रित कर सकता है. लक्ष्य के प्रति वह तन्मयता ही सफलता १. भगवद्गीता. २. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् -तत्त्वार्थसूत्र, अ० १-२ ३. आचारांग प्र० श्रु०. Jain Education International ((((( व For Private & Personal se Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9