Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 9
________________ प्रो. सागरमल जैन और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और दीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ आचार्य जो 84 आगम मानते है, वे प्रकीर्णकों की संख्या 10 के स्थान पर 30 मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त 22 नामों के अतिरिक्त निम्न 8 प्रकीर्णक और माने गये हैं .. पिण्डविशुद्धि, पर्यन्तआराधना, योनिप्रामृत, अंगचूलिया, वंगचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वह स्पष्टतः इन प्रकीर्णको को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथायें उसके संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की गई है। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनाफ्ताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की माथायें अवतरित है। ज्ञातव्य है कि इनमें अंग बाहयों को प्रकीर्णक कहा गया है। 2 धूलिकासूत्र चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगटार ये दो ग्रन्थ माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं। इस प्रकार हम देखते है कि 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र-- ये 45 आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य है। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से 10 प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति -- इन 13 ग्रन्थों को कम करके 32 आगम मान्य करते हैं। जो लोग चौरासी आगम मान्य करते है वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर पूर्वोक्त तीस एस्कीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजतिकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम साहित्य को अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। 12वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द की "सुखबोधासमाचारी" (ई.सन्.1112) में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है। इसमें आगम साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अंग, उपांग आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अंग, उपांग, प्रकीर्णक इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व अनुयोगद्धारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। सुखबोधासमाचारी का यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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