Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 18
________________ r 18 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 3-4 शती से पहले का नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें खोज पाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार इसके अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायांग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान इसके प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा सकता है। 1 I उपासकदशा आगम साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ है। स्थानांगसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के संकेत नहीं मिलते हैं। अतः मैं समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप नहीं हुआ है आवकवतों के अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टतः इसका अनुसरण देखा जाता है अतः यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। अंग आगम साहित्य में अन्तकृदशा की विषय-वस्तु का उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र में मिलता है । उसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित हैं-- नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, किंकिम, पल्लनेतिय, फाल अम्बडपुत्र । इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृदशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं मिलते हैं । किन्तु समवयांग और नन्दीसूत्र में क्रमशः इसके सात और आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृदशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया है। यद्यपि समवायांग और नन्दी में क्रमशः इसके सात एवं आठ वर्गों का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृदशा समदायांग और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था । अतः इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी - पाँचवीं शती का है। उसके प्राचीन दस अध्यायों के जी उल्लेख हमें स्थानांग में मिलते हैं उन्हीं दस अध्ययनों के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलंक के राजवार्तिक, धवला, अंगप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह फलित होता है कि इस अंग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त हो जाने के पश्चात् भी माधुरी वाचना की अनुश्रुति से स्थानाग में उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। Jain Education International बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरोपपातिकदशा की है। स्थानांगसूत्र की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कह गये हैं-- 1. ऋषिदास 2. धन्य 3. सुनक्षत्र 4. कार्त्तिक, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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