Book Title: Aradhanapataka aur Virbhadra Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 2
________________ આરાધનાપતાકા ઔર વીરભદ્ર [ १०३ अर्थात् - सविचार - भक्तपरिज्ञामरण शक्तिवाले ( स्वस्थ शरीरवाले ) को होता है । अतः उसकी आराधनाको चार द्वारोंसे कहते हैं । भक्तपरिज्ञा 'की दसवीं गाथा इस प्रकार है 4 " अपरक्कम स काले अपहुप्पं तंमि जं तमवियारं । तमहं भत्तपरिण्णं जहापरिण्णं भणिस्सामि | 39 इसमें लिखा है कि अस्वस्थ शरीरवालेको जो परिज्ञा होती है उसे अविचार - भक्तपरिज्ञा कहते हैं । उस अविचार - भक्तपरिज्ञाको मैं यथावस्थित (?) रूपसे कहूँगा । मतलब यह हुआ कि, भक्तपरिज्ञा दो प्रकारकी है, एक अविचार और दूसरी सविचार | अविचार - प्ररिज्ञाका वर्णन ' भक्तपरिज्ञा ' ग्रन्थ में और सविचार - परिज्ञाका कथन प्रस्तुत प्रन्थमें किया गया है । और इससे इन दोनों ग्रन्थोंका पारस्परिक सम्बन्ध भी पाया जाता है । परिक्रमविधि - द्वारांतर्गत लिंगद्वारकी ६४ वीं गाथामें लिखा है कि “ उवही पुण थेराणं चोदसहा' सुतनिधिट्ठो || " अर्थात् स्थविरकल्पियोंके लिये सूत्रमें चौदह प्रकारके उपधिका विधान किया है । यह स्थविरकल्प और चौदह प्रकार के उपाधिका विधान किया है । यह स्थविरकल्प और चौदह प्रकारके उपधिका विधान दिगम्बराचार्यके आराधनाग्रन्थमें नहीं हो सकता । ' आचेलकुद्देसिअ ' आदि जो दश प्रकारका कल्प है उसमेंसे प्रथम ही 'माचेलक्य (नग्नत्व) ' कल्पकी जो व्याख्या ग्रन्थकी ७० वीं गाथामें दी है उसका अस्तित्व दिगम्बराचार्य के प्रन्थमें नहीं बन सकता । वह गाथा इस प्रकार Jain Education International 66 'जुण्णेहिं खंडिरुहिय असव्वतणुण उरुर्हि (१) मइलेहिं । चेलेहिं सचेल च्चिय अचेलगा हुंति मुणिवसभा || १ चौदह प्रकारके उपधिका वर्णन निम्नलिखित गाथाओं में है। पतं १ पत्ताबंधो २ पायद्ववणं ३ च पायकेसरिया : । बलाई ५ रत्ताणं ६ च गोच्छाओं ७ पायनिजोगो ॥ तिनेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहपत्ती १२ । एम्रो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ एए चैव दुवालसमत्तग १३ अइरेग चोलपट्टो १४ य । एम्रो चउदसविहो वही पुण थेरक पंमि ॥ अंषनिर्युक्ति — गाथा ६६८-६९-७० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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