Book Title: Aradhanapataka aur Virbhadra Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 1
________________ आराधनापताका और वीरभद्र गत कार्तिकमासके ‘जैनहितैषी' में 'ऐतिहासिक जैनव्यक्तियाँ' शीर्षक लेखके अंतर्गत 'वीरभद्र 'का उल्लेख करते हुए, 'आराधनापताका 'के विषयमें लेखक महाशयने लिखा है कि" एक श्वेताम्बर विद्वान् द्वारा हमको ऐसा मालूम हुआ था कि 'आराधनापताका 'के कर्ता 'वीरभद्र' दिगम्बराचार्य हैं । " अस्तु, जिन श्वेताम्बर विद्वद्वर्यने 'वीरभद्र'को दिगम्बराचार्य बताया वह किस आधारसे, इस बातको तो वे ही जान सकते हैं। परन्तु मुझे इस ग्रन्थका साधन्त निरीक्षण करनेसे ऐसा मालूम हुआ है कि इसके कर्ता आचार्य श्वेताम्बर ही हैं। अतः मैं इसी विषयक प्रमाणाँको क्रमशः नीचे उद्धृत करता हूँ। आशा है कि पाठक उनपर विचार करेंगे। 'आराधना-पताका 'में १ परिक्रमविधि, २ गणसंकमण, ३ ममत्वव्युच्छेद और ४ समाधिलाभ, ये द्वार लाभ मुख्य हैं। प्रस्तुत ग्रन्थकारने ५१ वी गाथामें उल्लेख किया है कि " आरहणाविहिं पुण भत्तपरिणाइ वण्णिमो पुव्वं । ओसणं स च्चेव उ सेसाण वि वण्णणा होइ ॥" अर्थात् –आराधना-विधिको हमने पहले 'भक्तपरिज्ञा' प्रकीर्णकमें वर्णन किया है, वही विधि सर्वत्र समझनी चाहिये । इससे स्पष्ट माछम होता है कि 'भक्तपरिज्ञा' और प्रकृत ग्रन्थ, (आराधनापताका) दोनोंके कर्ता महाशय एक ही हैं। ५४ वी गाथामें लिखा है कि " भत्तपरिणामरणं भणियं सपरक्कमस्स सवियारं । तस्साराहणमिणमो भणंति कमसो चउद्दारं ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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