Book Title: Aprakashit Prakrut Shataktraya Ek Parichaya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 4
________________ डॉ० प्रेम सुमन जैन फिर भी इसके प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित करने की आवश्यकता है। उसके लिये विभिन्न पाण्डुलिपियों का मिलान करना होगा। उज्जैन के सरस्वती भवन से प्राप्त पाण्डुलिपि के नमूने के रूप में इस रचना के आदि एवं अन्त की कुछ गाथाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं। आदि अंश संसारंमि असारे नत्थि सुहं वाहि वेयंणा पवरे । जाणतो इह जीवो ण कुणई जिण देसियं धम्मं ।। १ ।। अज्जं कल्लं पुरपुण्णं जीवा चितंति अत्थि संपत्ते । अंजलि-गहियम्मि तोयं गलंतिमाउं ण पिच्छति ।। २ ।।। जं कल्लेण कयव्वं तं अज्ज चिय करेह तुरमाणं । बहु-विग्धोहमुहुत्तो मा अवरण्हं पडिवखेहिं ।। ३ ।। अंतिम अंश चउगइणंत दुहाणल पलित्त भवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुमं जिणवयणं अमियकुंडसम्मं ।। १०४ ।। विसमे भवमरूदेसे अणंतदुह गिम्हताव सेतत्ते । जिणधम्म कप्परूक्खं सरिस तुम जीव सिवसूहयं ।। १०५ ॥ किं बहुणा तहधम्मो जइअव्व जह भवोदहिं घोरं । लहु तरिउमणंत सुहं लहइ जियउ सासयं ठाण ।। १०६ ।। इति वैराग्यशतकं सम्पूर्णम् ।। द्वितीयम् ॥ इस वैराग्यशतक में संसार से वैराग्य उत्पन्न करने के लिये शरीर, यौवन और धन की अस्थिरता का वर्णन किया गया है। संसार की क्षणभंगुरता के दृश्य उपस्थित किये गये हैं। संसार के सभी सुखों को कमलपत्ते पर पड़ी हुई जल को बंद की तरह चंचल कहा गया है। इस शतक में काव्यात्मक बिम्बों का अधिक प्रयोग किया गया है। व्यक्ति के अकेलेपन का चित्रण करते हुए कहा गया है कि माता-पिता, भाई आदि परिवार के लोग मृत्यु से प्राणी को उसी प्रकार नहीं बचा सकते हैं जिस प्रकार सिंह के द्वारा पकड़ लिये जाने पर मृग को कोई नहीं बचा सकता । यथा ___जहेह सीहो व मियं गहाय मच्च् नरं णेइ हु अंतकाले । . ण तस्स माया व पिया न भाया कालंमि तंमि सहरा भवंति ॥ इसलिये चिन्तामणि के समान धर्मरत्न को प्राप्त कर संसारबन्धन से छूटने का प्रयत्न करना चाहिये। आदिनाथ शतक 'आदिनाथ देशनाशतक' नामक प्राकृत रचना का उल्लेख मिलता है। किन्तु आदिनाथशतक नामक किसी अन्य रचना अथवा पाण्डुलिपि की जानकारी नहीं है। उज्जैन के ग्रन्थ भण्डार से १. शास्त्री नेमिचन्द्र प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ३८७ । २. जैन ग्रन्थावलि, १० २०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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