Book Title: Apbhramsa Jain Sahitya
Author(s): Devendra Kumar Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ प्रो. देवेन्द्रकुमार जैन : अपभ्रंश जैन-साहित्य : ८०५ wwwwwwwwwww साहित्यिक रचना-विधान में उत्कृष्ठ और परिमाण में अधिक हैं. अपभ्रश के प्रकाशित जैन प्रबन्धकाव्य इस प्रकार हैंपउमचरिउ रिट्ठरणेमिचरिउ, महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहर चरिउ,भविसयत्त कहा, करकंडुवरिउ, गेमिणाहचरिउ, पउमसिरीचरिउ, सनत्कुमार-चरित और सुदंसणचरिउ आदि. कुछ अप्रकाशित प्रबन्धकाव्यों के नाम ये हैं-हरिवंशपुराणु, पांडुपुराणु, पद्मपुराणु, सुकोशल चरिउ, मेघेश्वरचरिउ आदि. इनमें से पुराणकाव्य और चरितकाव्य शुद्ध धार्मिक काव्य ग्रंथ हैं और णायकुमार-चरिउ, करकंडुचरिउ, और पउमसिरीचरिउ मुख्यतः रोमांटिक काव्य हैं. इनके अतिरिक्त मुक्तक काव्यों में रास, चर्चरी, कुलक, फागु, दोहा और गीति रचनायें हैं. उपलब्ध अपभ्रश साहित्य में गद्य और दृश्यकाव्य नहीं के बराबर हैं. लोकगीत अवश्य उस समय प्रचलित थे, जिनका आधार लोकप्रसिद्ध कथा होती थी. महाराष्ट्र में इसका प्रचलन अधिक व्यापक था. खंडकाव्य के नाम पर केवल 'संदेशरासक' प्राप्त हो सका है. परन्तु अभी अपभ्रंश का विपुल साहित्य प्रकाशन की प्रतीक्षा में है. महाकवि स्वयम्भू तथा पुष्पदन्त के उल्लेखों से यही पता चलता है कि अपभ्रश साहित्य सातवीं सदी से प्राचीन है. लगभग एक हजार वर्षों तक यह साहित्य भारत-भूमि पर पल्लवित-पुष्पित होता रहा. भाषा ही नहीं, साहित्य में भी यह प्राकृत साहित्य से मेल खाता है. अभी तक समूचे प्राकृत साहित्य का आलोडन नहीं हो सका. इसका कारण संस्कृत को अधिक बढ़ावा देना है. किंतु संस्कृत में प्रभाव रूप से कई बातें प्राकृत और अपभ्रश की मिलती हैं. संस्कृत के कई छन्द प्राकृतछंद हैं और अंत्यानुप्रास की प्रवृत्ति अपभ्रश साहित्य की देन है. वस्तु-विवरण पद्धति भी दोनों में समान है. हिंदी में बारहमासा की प्रवृत्ति, छंद-विधान, अंत्यानुप्रास, अलंकार-योजना, प्रबन्ध-शिल्प, पद्धति-चित्रण आदि विधायें अपभ्रश की देन हैं, न कि संस्कृत की. प्रो० हर्टर ने जैन कथांसाहित्य के निम्न लिखित रूप निर्धारित किये हैं. १. धार्मिक आलोचना में कहानियां २. धार्मिक आख्यान ३. चरित-काव्य ४. पौराणिक कहानियां [राम, कृष्ण आदि | ५. प्रबंध कहानियां [साधु, साध्वियों का जीवन-चरित] ६. कथा-काव्य वस्तुतः चरित-काव्य और कथा-काव्य में मौलिक भेद नहीं है. चरित-काव्य और पौराणिक काव्य में अवश्य थोड़ा भेद है. अपभ्रंश चरितकाव्यों के अन्तर्गत पउमचरिउ, णायकुमारचरिउ, पउमसिरीचरिउ, जसहरचरिउ करकंडुचरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ और भविसयत्त कहा आदि की गणना की जाती है. चरितकाव्यों की परम्परा अत्यधिक प्राचीन ज्ञात होती है. आगे चलकर इसी परम्परा में रामचरितमानस, रामचंद्रिका, पद्मावत प्रबन्धकाव्य रचे गये. संस्कृत में अवश्य पुराण-काव्यों की सर्वाधिक प्राचीनता का पता लगता है. सम्भव है कि चरित काव्य की धारा के मूल रूपों का विकास पुराणों से हुआ हो. पुराणकाव्यों में अलौकिकता और विस्तार के साथ ही अवान्तर आख्यानों का बाहुल्य प्राप्त होता है. इसके विपरीत चरित काव्यों में लौकिकता, मुख्य कथाप्रेरक घटनायें और वस्तुसंयोजना संक्षिप्त होती है. पुराण काव्यों की भांति इनमें पौराणिक रूढ़ियों और धार्मिक तत्त्वों का उल्लेख भी कम होता है. रोमांटिक चरितकाव्यों में तो यह तत्त्व बहुत ही कम पाया जाता है. किसी-किसी काव्य की कथावस्तु ऐतिहासिक व्यक्ति से भी सम्बन्ध रखती है. 'जायसी का पद्मावत' इसी प्रकार का काव्य माना जा सकता है. पउमचरिउ---अपभ्रश के आद्य महाकवि स्वयम्भू का यह प्रसिद्ध काव्य है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह एक चरितकाव्य है. इसमें पांच काण्ड और ६० संधियां हैं. प्रत्येक संधि में १२ से लेकर १४ तक कडवक हैं. इस रचना का समय आठवीं सदी का मध्य भाग माना जाता है. इसकी भाषा मधुर, प्रवाहपूर्ण और ललित है. भाषा पर कवि का जैसा अधिकार है, अन्यत्र विरल है. इस ग्रंथ में रामायण की कथा वर्णित है. प्राकृत में इनके पूर्व विमलसूरि 'पउमचरिउ' काव्य लिख चुके थे. संस्कृत में जिनसेन आचार्य ने भी 'आदिपुराण' की रचना कुछ समय पूर्व ही की थी. इन्हीं को . KAHANUMMATERNETRIORA BESARENININESISENERERINNENININESESONENE Jain Education Intemational For Private Personal use only www.pinemarary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5