Book Title: Apbhramsa Jain Sahitya Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ 808 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय mananewww ww संधियों में राजा करकंडु की कथा है. यह जैन साहित्य की प्रसिद्ध कथा कही जाती है. इसमें धर्म और प्रेम साथ ही दृष्टिगोचर होता है. युद्ध का वर्णन भी है, पर वह नाम मात्र का है. वर्णन की अपेक्षा कथाओं की योजना स्वाभाविक है. इस काव्य में इतिवृत्तात्मकता के साथ संग्रहात्मकता भी है. परन्तु इतिवृतात्मकता का निर्वाह पूर्णरूप से नहीं हो पाया. श्रोता-वक्ता शैली को छोड़कर पौराणिक काव्य की शेष रूढियों का पालन हुआ है. आगे चलकर मूलकथा की गति में अवरोध दिखाई देता है. इसके संवाद अवश्य उत्तम हैं. इस पर कुछ नाटकीय प्रभाव भी लक्षित होता है. जम्बूस्वामीचरिउ :-वीर कवि की यह कृति वि० सं० 1076 की कही जाती है. इस चरितकाव्य में अंतिम केवली जम्बू स्वामो के चरित का वर्णन है. इसका उल्लेख डॉ० हरिवंश कोछड़ ने अपने प्रबन्ध 'अपभ्रश साहित्य' में किया है. ऐसे अन्य भी अप्रकाशित चरित-काव्य हैं. सुदंसणचरिउः—यह नयनन्दी कविकृत चरितकाव्य है. इसका रचनाकाल वि० सं० 1100 कहा गया है. इसमें सुदर्शन के चरित के माध्यम से पंचनमस्कार मंत्र का माहात्म्य वणित है. पासचरिउ :--यह पद्मकीति की सफल कृति है. इसका उल्लेख अन्यत्र भी मिलता है. इसमें तेवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित कहा गया है. काव्यका रचना-काल वि० संवत् 1134 बताया जाता है. बारहवीं शताब्दी के अनेक चरितकाव्यों का उल्लेख मिलता है. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-देवसेनगणि का सुलोयणाचरिउ. इसमें भरत चक्रवर्ती के प्रधान सेनापति जयकुमार की धर्मपत्नी का जीवन-चरित वणित है. श्रीधर के पासणाहचरिउ, सुकुमाल चरिउ और भविसयतचरिउ का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें क्रमश: पार्श्वनाथ चरित, सुकुमाल का पूर्व जन्म और श्रुतपंचमी का माहात्म्य वर्णित है. तेरहवीं सदी के चरितकाव्यों में सिंह कवि का पज्जुण्ण चरिउ है जिसमें प्रद्युम्न का जीवन-चरित चित्रित है. हरिभद्र का सनत्कुमारचरित और रइधू के सुकौशलचरित, मेघेश्वर चरित, श्रीपालचरित, सन्मतिनाथचरित हैं और हरिदेव का मयणपराजयचरिउ चरितकाव्यों में गिने जाते हैं. इस काल में रचित काव्यों की एक लम्बी परंपरा ही दिखाई देती है. आगे चलकर पंद्रहवीं सदी में धनपाल के बाहुबलिचरित और लखनदेव के रोमिणाहचरिउ का उल्लेख मिलता है. इस प्रकार अपभ्रश जैन साहित्य में चरितकाव्यों की विशिष्ट परंपरा है. पुराणकाव्यों की संख्या भी कम नहीं है. स्थूल रूप से दोनों में स्वरूप और लक्ष्य की दृष्टि का ही भेद है, मुक्तक काव्य में भी यही बात है. मुक्तक रचनाकारों में जोइन्दु (योगीन्द्र) का स्थान श्रेष्ठ माना जाता है. इसकी चार रचनायें हैं-परमात्मप्रकाश, योगसार, दोहाप्राभृत और श्रावक-धर्म-दोहा. कवि का समय दसवीं शताब्दी माना गया है. इसके अतिरिक्त जिनदत्त सूरि की चर्चरी, कालस्वरूप कुलक, और उपदेशरसायन प्रसिद्ध रचनायें हैं. इनका समय बारहवीं सदी कहा जाता है. शालिभद्रसूरि का 'भारत बाहुबली रास' तेरहवीं सदी के रासक ग्रंथों में सबसे बड़ी रचना कही गई है. इसमें भरत-बाहुबली के युद्ध का विस्तृत वर्णन है. रचना अनेक बंधों में लिखी गई है. परवर्ती रासग्रंथों में इसी तरह के 'समरारास' 'कच्ठूलीरास' पेथड रास आदि रचनायें लिखी गई. फागु ग्रंथ भी रचे गये. श्री जिनपद्म सूरिका 'सिरि थूलिभद्द फागु' प्रसिद्ध रचना है. इसके वर्णन अत्यन्त मनोहर हैं. शब्द-विन्यास बहुत ही उत्तम है. दोहों में आचार्य हेमचन्द्र के सिद्ध हेमशब्दानशासन' में शृगार, वीर, नीति, अन्योक्ति तथा अन्य प्रकीर्णक दोहे भी उपलब्ध होते हैं. छंदों के परिचय के लिए स्वयम्भू का 'स्वयम्भूछंद' प्रसिद्ध रचना है. संक्षेप में—अपभ्रश जैन साहित्य विपुल और विशद है. इसमें महाकाव्य, पुराण, चरितकाब्य, कथाकाव्य, गीत, उपदेश, शृंगार सभी कुछ प्राप्त होता है. गद्य अवश्य नहीं के बराबर है. ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय साहित्य और भाषा के मूल्यांकन के लिए यह साहित्य पुरक है. इस साहित्य के विना समूचा ऐतिहासिक मूल्यांकन अपूर्ण ही रहेगा. इस साहित्य में भारतीय जीवन का पूरा चित्र अपनी स्वाभाविक दशा में प्रतिबिम्बित हुआ है. इसलिए इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है. आशा है कि भविष्य में अन्य शोध-कार्यों से इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त हो सकेगी. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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