Book Title: Aparigraha se Dwandwa Visarjan Samtavadi Samaj Rachna
Author(s): Prakashchandramuni
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 4
________________ PadoDC 3 000000000000000000000000000000000000000000000000000 करेगा? POOD.. Joeso । अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ५११ उत्त. ८३/४४।। फिर भी मनुष्य परिग्रह में सुख मानता है। किन्तु कंस ने भी अपने पिता उग्रसेन को इसी राज्यलिप्सा के कारण मनीषी विद्वान कहते हैं कि 'रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, कारावास में बन्द किया था व स्वयं राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ स्त्री, सन्तान एवं हन्डियों के इष्ट शब्दादि विषयों की अभिलाषा में था। व्याकुल बने हुए संसारी जीव स्वस्थता का स्वाद कैसे ले और भी ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास गगन पर प्राप्त हो सकते हैं ? सकते हैं। इसी परिग्रह के कारण भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, प्रथममशन पान प्राप्ति वाञ्छादिहस्ता, पति-पत्नी में द्वन्द्व होते देखे गए हैं। घर के टुकड़े भी इसी तृष्णा स्तदनु वसनवेश्माऽलकृति व्यग्रचित्ताः। की बढ़ती हुई बाढ़ के कारण होते हैं। हरे-भरे घर उजड़ते हुए देखे जा सकते हैं। इस परिग्रह ने क्या नहीं किया? “अर्थमनर्थम परिणयनमपत्यावाप्ति मिष्टेन्द्रियार्थान, भावयनित्यम्।" विनोबा ने कहा है यह अर्थ अनर्थ की खान है। सततमभिलषन्ताः स्वस्थतां क्वानुवीरन् । समस्त पापों का मूल है। या यों कहें कि यही अर्थ या लोभ पाप का -शान्त सुधारस-कारुण्य भावना। बाप है। लोभी व्यक्ति अन्धा ही होता है। उसे अपना भला-बुरा भी बाह्याभ्यंतर परिग्रह संसार के समस्त दुःखों से बचाने में दिखाई नहीं देता तो वह देश, समाज व राष्ट्र का क्या उत्थान असमर्थ है। क्योंकि जो कार्य जिसका नहीं है, वह उस कार्य को कैसे कर सकता है ? परिग्रह तो संसार में द्वंद्व कराने वाला है। अनासक्त-अनिच्छक = अपरिग्रही-परिग्रह की इतनी चर्चा के वह द्वंद्व से मुक्त करने में असक्षम है। तृष्णा के वशीभूत बनी बाद अब अपरिग्रह पर भी एक दृष्टि निक्षेप करें। आचार्य हेमचन्द्र दुनिया 'जर-जोरू और जमीन' के लिए अनेकों बार रक्त-रंजित ने अपने इतिहास प्रसिद्ध ग्रंथ 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में कहा है-'सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः। अर्थात् सभी पदार्थों पर से आसक्ति हटा लेना ही अपरिग्रह है।' जहाँ ममत्व/आसक्ति परिग्रह परिग्रह के ऐतिहासिक उदाहरण-जैन इतिहास में मगधेश का हेतु है, वहाँ निमर्मत्व/अनासक्ति अपरिग्रह का। ममत्वशील प्राणी कौणिक और चेटक का विराट् युद्ध प्रसिद्ध है। जिसमें लाखों की संसार में भटकते हैं-'ममाइ लुंपइ वाले।' सूत्र. १-१-१-४। और सैना का घमासान हुआ। इस भीषण नर संग्राम के पीछे एक ही आचारांग सूत्र में कहा गया है कि अधिक मिलने पर भी संग्रह न कारण था-हार और हाथी को हस्तगत करना। मगध सम्राट करे और परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखे-'बहुपि लद्धं न निहे, श्रेणिक के राजपुत्रों में जब राज्य का बटवारा हुआ, तब एक परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्सा॥ १-१-५१ परिग्रह कर्म बेशकीमती हार और हस्तिराज हाथी हल-विहल भाइयों को प्राप्त बन्ध/इन्द्व/संघर्ष का कारण है और अपरिग्रह मुक्ति का। हुआ। कौणिक की पत्नी ने जब हार-हाथी को देखा, तब वह दोनों मनुष्य को जीवन जीने के लिए, जीवन निर्वाह की साधन पर मोहित हो गयी। उसने मगधेश कौणिक से कहा-'हार-हाथी के सामग्री अवश्य चाहिए। इससे भी इन्कार किया ही नहीं जा सकता बिना यह राज्य सूना है।' बस कौणिक के मन में हार-हाथी का है। ऐसे में कुछ परिग्रह की उपस्थित अवश्य हो ही जाती है। अतः परिग्रह जाग उठा और जिसका परिणाम लाखों की संख्या में क्या करे? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए विशेषावश्यक सूत्र के नर-संहार के रूप में आया। भाष्यकार कहते हैं कि 'गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा, मुच्छाहि बौद्ध साहित्य में कलिंग युद्ध प्रसिद्ध है जो सम्राट अशोक ने । निच्छयओ। २५७३ 'निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह लड़ा था। कलिंग युद्ध राज्य लिप्सा का ही एक उदाहरण है। भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्छा नहीं है तो अपरिग्रह।+सूत्रपाहुड में कहा है-'अप्पगाहा, महाभारत भी राज्यलिप्सा को प्रस्तुत करता है। समुद्दसलिले सचेल अत्थेण-२७ ग्राह्य वस्तु में से भी अल्प रामायण स्त्री परिग्रह का संकेत करती है। (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए। जैसे समुद्र के अथाह सम्राट औरंगजेब द्वारा अपने पिता शाहजहाँ को कैदखाने में जल में से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प जल ही ग्रहण किया बंद करना और भाइयों का वध करना राज्य-परिग्रह का ही तो जाता है। एसा वृत्ति वाला साधक/मनुष्य अपरिग्रही कहलाता है। प्रतिफल है। आवश्यकतानुसार अपरिग्रह भाव से ग्राह्य वस्तु का ग्रहण अपरिग्रह की कोटि में ही आता है। जैसाकि कहा है-'अपरिग्गहसंवुडेण सिकन्दर की दिकविजय के पीछे धनलिप्सा और जगत सम्राट लोगंमि बिहरियव्वं ॥ प्रश्न २/३ 'अपने को अपरिग्रह भावना से बनने की भावना ही तो थी। संवृत बनाकर लोक में विचरण करना चाहिए।' मगधेश कौणिक ने भी राज्य लोभ से अपने जनक सम्राट अपरिग्रह अर्थात् अनिच्छाभाव का जागरण/अनिच्छा से इच्छा श्रेणिक को काराग्रह में बंद कर दिया था। को जीता जा सकता है। और सुख पाया जा सकता है-'तम्हा उज्यपाएनन्यायालय भएकरण्याकरण गएमा

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