Book Title: Aparigraha Manav Jivan ka Bhushan
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 2
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ३४३ परिग्रह का प्रदर्शन अधिक है तो वहां पाप मानते हुए भी वस्त्राभूषण, धनधान्य आदि का संग्रह अधिक दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि परिग्रह से उन साधनों से ही आदमी का मूल्यांकन होता है । कितना ही व्रती, सेवाभावी, गुरणी एवं विद्वान् भी क्यों न हो, सादी भेष-भूषा में हो तो आदर प्राप्त नहीं करता, यदि बढ़िया वेश और उच्च स्तरीय आकर्षक रहन-सहन हो तो दर्शकजनों की दृष्टि में बड़ा माना जाता है। यही दृष्टि-भेद संग्रह-वृत्ति और लोभ-वृद्धि का प्रमुख कारण है। अपरिग्रह भाव को बढ़ाने के लिए सामाजिक व्यवस्था और बाह्य वातावरण सादा एवं प्रदर्शन रहित होना चाहिए। आंग्ल शासकों की अधीनता से मुक्त होने को गांधीजी ने सादा और बिना प्रदर्शन का अल्प परिग्रही जीवन अपनाया था। बड़े-बड़े धनी, उद्योगपति और अधिकारी भी उस समय सादा जीवन जीने लगे । फलस्वरूप उन दिनों सेवा और सेवावृत्ति को ऊँचा माना जाने लगा। लोगों में न्यायनीति, सेवा और सदाचार चमकने लगा । आज फिर सामाजिक स्तर से देश को सादगी का विस्तार करना होगा, प्रदर्शन घटाना होगा । जब तक ऐसा नहीं किया जाय, तब तक परिग्रह का बढ़ता रोग कम नहीं ही सकता। प्रदर्शन करने वाले के मन में ईर्ष्या, मोह और अहंकार उत्पन्न होता है और दूसरों के लिए उसका प्रदर्शन, ईर्ष्या, हरणबुद्धि, लालच एवं आर्त्त-उत्पत्ति में कारण होता है, अतः प्रदर्शन को पाप-बुद्धि का कारण समझ कर त्यागना परिग्रह संज्ञा घटाने का कारण है । आज संसार में परिग्रह की होड़ लगी हुई है। ऐसी परिस्थिति में परिग्रह भाव घटाने में निम्न भावनाएँ अत्यन्त उपयोगी हो सकती हैं१. परिग्रह भय, चिन्ता और चंचलता का कारण एवं क्षणभंगुर है । २. असंग्रही वृत्ति के पशु-पक्षी मनुष्य की अपेक्षा सुखी और प्रसन्न रहते हैं । ३. परिग्रह मानव को पराधीन बनाता है, परिग्रही बाह्य पदार्थों के अभाव में चिन्तित रहता है। ४. परिग्रह की उलझन में उलझे जीव को शान्ति नहीं मिलती। ५. सन्तोष ही सुख है । कहा भी है "गोधन, गजधन, रतन धन, कंचन खान सुखान । जब आवे सन्तोष धन, सब धन धलि समान ।।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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