Book Title: Aparigraha
Author(s): D R Mehta
Publisher: D R Mehta

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Page 13
________________ आदि का भी उल्लेख करते हैं और इसीलिए स्वाभाविक लगता है शुमाकर का यह निष्कर्ष कि हम दरअसल एक तत्त्वमीमांसीय रोग के शिकार हैं, इसलिए इसका इलाज भी तत्वमीमांसीय होना चाहिए। शुमाकर को अर्थशास्त्र का तत्त्वमीमांसक कहा जा सकता है और स्माल इज ब्यूटिफुल को अपरिग्रह के आर्थिक पहलू को तार्किक और व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत करने वाली कृति। xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx स्थायी अर्थव्यवस्था : महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जे०सी० कुमारप्पा आदि विचारकों द्वारा इंगित उपभोग की सीमा पर आधारित असंग्रह मूलक स्थायी आर्थिक व्यवस्था एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का प्रारूप देने में समर्थ है। इस उपभोग की सीमा पर आधारित स्थायी आर्थिक व्यवस्था की अवधारणा मुख्यत: निम्नलिखित आधार-शिलाओं पर टिकी . अपरिग्रह का महत्त्व उजागर करना + प्रकृति और मनुष्य के बीच द्वैत भाव को नकारना मनुष्य में निहित नैतिकता को स्वीकार करना शारीरिक श्रम का महत्त्व समझना - विकेंद्रीकरण, किंवा ग्राम स्वावलंबन को अर्थ व्यवस्था का आधार बनाना। उपभोग की सीमा पर आधारित स्थायी अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है-अपरिग्रह। अत: इसे अपरिग्रहमूलक अर्थव्यवस्था भी कहा जा सकता है। जिसे महावीर ने विसर्जन के सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया है जिसका तात्पर्य है अन्य का साथ साझा (आधुनिक अर्थशास्त्र के वितरण से भिन्न)। विसर्जन आर्थिक असमानता और गरीबी को, जो परिग्रह और संग्रह का रूप है, दूर करने का साधन है। महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप की अवधारणा भी अपरिग्रह अथवा विसर्जन का ही दूसरा रूप है। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था अधिक से अधिक मांग उत्पन्न करने में विश्वास रखती है और ऐसी वस्तुओं और सेवाओं की मांग को भी बढ़ावा देती है जिनकी वास्तव में कोई आवश्यकता नहीं है। विज्ञापनों एवं अन्य प्रचार-प्रसार के साधनों से उपभोक्ता को प्रभावित कर मांगों में सतत् वृद्धि करते रहने का प्रयास रहता है। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत अधिकाधिक मांगों की तुष्टि करने के प्रयत्न में स्वाभाविकतः प्राकृतिक साधनों का अविरल दोहन हो रहा है जिसके कारण यह व्यवस्था एक टिकाऊ व्यवस्था नहीं बन पा रही। स्थायी आर्थिक व्यवस्था अपरिग्रह के सिद्धांतों पर टिकी है। इस व्यवस्था में मांग और आवश्यकताओं में भेद किया गया है। कृत्रिम मांग को नकारा गया है और आवश्यकताओं पर भी नियंत्रण रखने पर जोर दिया गया है। स्थायी आर्थिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले व्यक्ति उन साधनों का उपयोग भी आवश्यकता से अधिक नहीं करेंगे, जो दिखने में असीमित लगते हों। उपभोग की सीमा पर आधारित प्रस्तावित इस स्थायी अर्थशास्त्र और आधुनिक अर्थशास्त्रीय सिद्धांत एक मामले में परस्परोन्मुख हैं। दोनों ही कामनाओं, जरूरतों और मांगों में भेद करते हैं। मनुष्य असीमित कामनाएं रख सकता है। उनका साधनों द्वारा समर्थित होना आवश्यक नहीं है। जरूरतें जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं हैं, जो भौतिक जरूरतों के अलावा अन्य बातों पर भी निर्भर करती है। मांगे वे कामनाएं है और जरूरतें हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए किसी मनुष्य के पास आवश्यक साधन उपलब्ध होते हों। अर्थशास्त्र में विकास (Development) और संवृद्धि (Growth) में अंतर किया जाता है यद्यपि आम बोलचाल में ऐसा नहीं होता। विकास संवृद्धि की अपेक्षा एक व्यापकतर अवधारणा है। वस्तुतः संवृद्धि विकास का हिस्सा है। स्थायी आर्थिक व्यवस्था प्रकृति और मनुष्य के बीच द्वैत भाव को नकारती है। प्रस्तावित स्थायी आर्थिक व्यवस्था चरअचर को समाहित कर, आर्थिक व्यवहार को समग्र दृष्टि से देखने पर बल देती है। वर्तमान अर्थव्यवस्था की सोच एक प्रतिरुद्ध व्यवस्था (Close System) के दायरे में है। प्रकृति के सभी अंगों को मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक साधन मात्र ही समझा गया है। इसके फलस्वरूप भूमि और जल का असीमित दोहन और प्रदूषण स्पष्टतः दिखाई देने लगा है। शनैः शनैः, इस विकृत सोच से उत्पन्न हुए परिणामों की गंभीरता का भान होने लगा है। जलवायु में हो रहे परिवर्तन ने, जो महद अंशो में वर्तमान उत्पादन प्रणाली और जीवन शैली की देन है, स्पष्ट कर दिया है कि यह आर्थिक व्यवस्था टिकाऊ नहीं है। इसके विपरीत स्थायी अर्थव्यवस्था की मूलभूत मान्यता यह है कि सभी आर्थिक क्रियाकलापों का प्रभाव समग्र विश्व पर पड़ता है—चाहे वे उत्पादन से संबंधित हो अथवा उपभोग से। इसे स्वीकार करने पर आर्थिक गतिविधियों में समाज और प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व की भावना स्वाभाविक ही उजागर हो जाती है। अपरिग्रहमूलक स्थायी आर्थिक व्यवस्था का ध्येय प्राकृतिक साधनों का कम से कम अपव्यय करना और आने वाली पीढ़ी के लिए टिकाऊ व्यवस्था प्रदान करना है। इस व्यवस्था में मनुष्य को प्रकृति का एक अविभाज्य अंग माना गया है। इसलिए वर्तमान प्रदूषण बढ़ाने वाली और तुरंत लाभ का ध्येय पोषित करने वाली व्यवस्था के दूषण इस अर्थव्यवस्था में नहीं रहेंगे। संक्षेप में, यह (अहिंसक) आर्थिक व्यवस्था विवृत्त व्यवस्था (Open System) को आधारभूत मानती है। वह संकीर्ण, मानव-केंद्रित दृष्टिकोण को नकारती है। एक दूसरा महत्त्व का अंतर इन दोनों व्यवस्थाओं में मानव में निहित नैतिकता की अवधारणा को लेकर है। वर्तमान व्यवस्था में मनुष्य को होमो इकॉनोमिकस (Homo Economicus), अपने आर्थिक हित को सर्वोपरि समझने वाला प्राणी, माना गया है। लेकिन, वैकल्पिक व्यवस्था में मनुष्य को नीतिनिष्ठ होने और आर्थिक हानि-लाभ से ऊपर उठकर मानवीय संबंधों का सम्मान करने (13)

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