Book Title: Aparigraha Author(s): Niraj Jain Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 2
________________ का द्वार रहा हो। परन्तु आज ऐसा नहीं है। हिंसा का आनन्द उठाने के लिए, हम में से कोई हिंसा नहीं करता। झूठ का मजा लेने के लिये कोई व्यक्ति अवसर तलाश कर झूठ बोलता ही हो, ऐसा भी नहीं है। इसी प्रकार चोरी और व्यभिचार की प्रधानता आज हमारे समाज में नहीं पाई जाती। ये चार पाप किये बिना कोई अपने आप को अधूरा मानता हो, या दुखी समझता हो, ऐसा भी प्राय: देखने में नहीं आता। परन्तु यह जो पाँचवां पाप है उसे करते हम सब अपने आप को आनन्दित मानते हैं। आज की समाज व्यवस्था में परिग्रह ही शेष चार पापों का द्वार खोलनेवाली व्याधि बनकर हमारे मन-मष्तिष्क पर छाया हुआ है। जीवन में प्रवेश करती हुई पाप-धारा को रोकने के लिये हमें सबसे पहले अपनी परिग्रह-प्रियता पर अंकुश लगाना होगा। हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील से घृणा करते हुए भी हम परिग्रह से कभी स्वप्न में भी घृणा नहीं कर पाते। उल्टे उसके सान्निध्य में अपने को सुखी और भाग्यवान समझने लगे है। यह परिग्रह-प्रियता हमें भीतर तक जकड़ लेती है, और हमारे हित-अहित का विवेक भी हमसे छीन लेती है। आज परिग्रह के पीछे मनुष्य ऐसा दीवाना हो रहा है कि उसके अर्जन और संरक्षण के लिये वह, करणीय और अकरणीय, सब कुछ करने को तैयार है आज का मनुष्य हिंसक नहीं होना चाहता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितनी भी हिंसा करनी पड़े वह करता है। आज का मनुष्य झूठ और चोरी में अपनी प्रतिष्ठा नहीं मानता। उनसे अपने आप को सुखी भी नहीं मानता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितना झूठ बोलना पडे, वह बोलता है, जिस-जिस प्रकार की चोरियां करना पड़े, वह करता है। आज हमारी जीवन पद्धति में व्यभिचार और कुशील निन्दनीय माने जाते हैं। कोई कुशील को अपने जीवन में समाविष्ट नहीं करना चाहता। परन्तु परिग्रह के अर्जन और रक्षण के लिये जितना कुशील-मय व्यवहार करना पडे, हम में से प्रायः सब, उसे करने के लिये तैयार बैठे 4 परिग्रह को लेकर कहीं अनुज अपने अग्रज के सामने आँखे तरेर कर खड़ा है। उसकी अवमानना और अपमान कर रहा है। कहीं अग्रज अपने अनजको कोर्ट-कचहरी तक घसीट रहा है। परिग्रह को लेकर ऐसे तनाव प्रगट हो रहे हैं कि बहिन की राखी भाई की कलाई तक नहीं पहुंच पाती। परिग्रह के पीछे पति-पत्नी के बीच अन-बन हो रही है और मित्रों में मन-मुटाव पैदा हो रहे है। एक व्यक्ति चरित्र-हीनता के कारण जिस पत्नी को छोड़ रहा है, दूसरा उसी पर मोहित हुआ, उसे पाने के लिये अपनी सती-साध्वी, सुन्दर पत्नी की उपेक्षा कर रहा है। ये होने के पहले ही टूटते हुए रिश्ते, ये चरमराते हुए दाम्पत्य, परित्यक्त पत्नियों की ये सुलगती हुई समस्याएं, और दहेज की वेदी पर झुलसती-जलती ये कोमल-कलियाँ, हिंसा, झूठ और चोरी का परिणाम नहीं है। ये सारी घटनाएं व्यभिचार के कारण भी नहीं घट रही हैं। मानवता के मुख पर कालिख मलने वाले, और समाज में सड़ांध पैदा करने वाले ये सारे दुष्कृत्य, हमारी परिग्रह-प्रियता का ही कु फल हैं। गहराई में जाकर देखें तो इनमें से अधिकांश घटनाओं २७४ अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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