Book Title: Aparigraha Author(s): Niraj Jain Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 6
________________ मैने देखा । मुझे लगा इससे बड़ा भिखारी शायद तलाशने पर भी मुझे नहीं मिलेगा। बस, यही सोचकर मैने अपनी झोली का रूपया आपके पास तक पहुंचाने की कोशिश की। जो अपनी ख्वाहिश के लिये दूसरे को नेस्तनाबूत करने चल पड़ा हो, जो उस मकसद पर अपने चहेतों की जिन्दगी तक कुरबान करने पर तुला हो, उससे बड़ा और सच्चा "जरूरतमन्द" और कौन होगा ?" लोभ और तृष्णा इसी तरह राजा को भी रंक और भिखारी बना देती है। जो आशा और तृष्णा के गुलाम हो गये, वे सारी दुनिया के गुलाम हो जाते हैं, परन्तु आशा को जिन्होंने वश में कर लिया, सारा संसार उनके वश में हो जाता है। वे लोक-विजयी होकर मानवता के मार्ग दर्शक बन जाते हैं। यही बात एक नीतिकार ने कही तब हमें अपनी चिर-पोषित अतृप्त आकांक्षाओं को, और अनावश्यक आवश्यक्ताओं को, क्या बार-बार परखते नहीं रहना चाहिए? क्या उन पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं करना चाहिए ? देहात के किसी स्कूल में एक दिन दो विद्यार्थी देर से पहुँचे । अध्यापक ने दोनों से विलम्ब का कारण पूछा। पहले विद्यार्थी ने उत्तर दिया "मेरे पास एक रूपया था जो मार्ग में ही कहीं गिर गया। उसे ढूंढने में मुझे देर हुई। रूपया भी नहीं मिला और कक्षा भी गई । " कहते-कहते विद्यार्थी की आँखों से आँसु झरने लगे । आशाया ये दासाः, ते दासा सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी, तेषां दासायते लोक: दूसरे विद्यार्थी ने दण्ड के भय से सकपकाते हुए कहा "इसका जो रूपया खोया था उसे मैं ही अपने पाँव के नीचे दबाकर खड़ा था। बहुत देर तक यह वहाँ से हटा ही नहीं, मैं कैसे वह रूपया उठाता और कैसे वहाँ से चलता। बस, इसी कारण मुझे देर हुई । " यहाँ घटना की दृष्टि से देखें तो दानों विद्यार्थियों की भूमिका में अन्तर है। एक ने कुछ खोया है, जबकि दूसरे ने कुछ पाया है। परन्तु प्रतिफल की दृष्टि से देखा जाये तो दोनों ही दुखी हुए हैं। अपने कर्तव्य पालन में दोनों को ही विलम्ब हुआ है। उसके लिये दोनों ही दण्ड के भागीदार बने हैं। जिसका कुछ खो गया उसे खोने की पीड़ा है, और जिसे कुछ मिला है उसे छिन जाने का भय त्रस्त कर रहा है। उसे प्राप्ति को अपने पैर के नीचे दबाये रखने की चिन्ता है। और अधिक पाने की लालसा है। यही तो कारण है कि संसार में सब दुखी ही हैं। जिसके पास कुछ नहीं है वह सम्पत्ति के अभाव की यातना से दुखी है। जिसके पास कुछ है वह परिग्रह के सद्भाव में होने वाले तरह-तरह के दुःखों से दुखी हो रहा है। दुखों को जन्म देने वाली आकांक्षाएं और आकुलताएं सबके मन में हैं, लेकिन सुख को उत्पन्न करने वाली निराकुलता, सहिष्णुता और संतोष यहाँ किसी के पास नहीं है। संतोष और अनाकाँक्षा के बिना सुख की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ? २७८ जार्ज बनार्ड शॉ ने लिखा है "हमारे जीवन में दो दुखद घटनाएं घटती हैं। पहली यह कि हमें अपनी मनचाही वस्तुए मिलती नहीं हैं। दूसरा यह कि वे हमें मिल जाती हैं। अकार्य में जीवन बिताना गुणी और ज्ञानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं । Jain Education International - - For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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