Book Title: Anya Darshano me Anekantvad ke Tattva Author(s): Suvratmuni Shastri Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 3
________________ अनेकान्त-दृष्टि में और स्याद्वाद में समग्रवाद एवं प्रतिवाद दूर हो जाता है। अनेकान्तवाद की व्यवस्था ही इस प्रकार की है कि उसमें किसी भी प्रकार के वाद-विवाद को स्थान रहता ही नहीं। जैन-दार्शनिकों से यह पूछा गया कि आपके यहां सत्य अनित्य है अथवा नित्य / तब उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-नित्य भी और अनित्य भी / कैसे और क्यों ? इस दार्शनिक सनातन प्रश्न का समाधान उन्होंने दो दृष्टियों से किया-द्रव्य-दृष्टि से और पर्याय-दृष्टि से / / द्रव्य-दृष्टि से जगत् की प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्याय-दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु अनित्य है / जैन-दार्शनिकों ने कहा सत् भी सत्य है और असत् भी सत्य है। दोनों में दृष्टि का भेद है। दोनों में दृष्टि का अन्तर है। क्या घर में रहने वाला एक व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा पिता नहीं हो सकता ? पितृत्व और पुत्रत्व में विरोध प्रतीत होने पर भी विरोध नहीं है, क्योंकि दृष्टि भिन्न-भिन्न है। तब फिर जगत् की एक ही वस्तु नित्य भी और अनित्य भी क्यों नहीं हो सकती? उसमें भी किसी प्रकार का विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता, क्योंकि दोनों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न है / जगत् के प्रत्येक पदार्थ में जो परिवर्तन परिलक्षित होता है, वह पर्याय की अपेक्षा से है। उसकी सत्ता का कभी लोप नहीं होता-यह द्रव्य की अपेक्षा से उचित है / क्या एक ही व्यक्ति बालक, तरुण और वृद्ध नहीं हो सकता। फिर भी यह सत्य है कि तीनों अवस्थाओं में परिवर्तन आता है इसे झुठलाया नहीं जा सकता। यह भी सत्य है कि तीनों अवस्थाओं में व्यक्ति एक ही है, भिन्न नहीं। जैन-दर्शन की यही अनेकान्त-दृष्टि है और यही अनेकान्त-तत्व या वाद है। O 'नासदासीन्न सदासीत्तदानीम् / ', ऋग्वेद, 10/126/1 'यद्यपि सदसदात्मक प्रत्येक विलक्षणं भवति तथापि भावाभावयोः सहवस्थानमपि संभवति / ', उपर्युक्त पर सायण-भाष्य 'तदेजति तन्नेजति तद्रे तदन्तिके।' ईशोपनिषत्, 5 'अणोरणीयान् महतो महीयान् / ' कठोपनिषत्, 2/20 'सदसच्चामृतं च यत् / ' प्रश्नोपनिषत्, 2/5 'अस्तीति काश्यपो अयं एकोऽन्तः नास्तीति काश्यपो अयं एकोऽन्तः यदनयोर्द्वयोः अन्तयोर्मध्यं तदरूप्यं अनिदर्शनं अप्रतिष्ठं अनाभासं अनिकेतं अविज्ञप्तिकं यमुच्यते काश्यपः मध्यमप्रतिपदधर्माणां / ', काश्यपपरिवर्तन, महायान 0 विरोधस्तावदेकान्ताद्वक्तुमत्र न युज्यते।', मीमांसाश्लोकवात्तिक ..."तस्मात् प्रमाणबलेन भिन्नाभिन्नत्वमेव युक्तम् / ननु विरुद्धौ भेदाभेदौ कथमेकत्र स्याताम् / न विरोधः, सह दर्शनात् / यदि हि 'इदं रजतम्, नेदं रजतम्' इतिवत् परोस्परोपमनभेदाभेदौ प्रतीयेयाताम् ततो विरुद्धयेयाताम् न तु तयोः परोस्परोपमर्दैन प्रतीतिः / इयं गौरिति बुद्धिद्वयम् अपर्यायेण प्रतिभासमानमेकं वस्तुद्वयात्मक व्यवस्थापयति समानाधिकरण्यं हि अभेदमापादयति अपर्यायत्वं च भेदम्, अतः प्रतीति बलादविरोधः / अपेक्षाभेदाच्च,... एवं धर्मिणो द्रव्यस्य रसादिधर्मान्तररूपेण रूपादिभ्यो भेदः द्रव्यरूपेण चाभेदः...', शास्त्रदीपिका इच्छन् प्रधानं सत्वा_विरुद्ध गुम्फितं गुणैः। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् / / चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् / यौगो वैशेषिको वाऽपि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // प्रत्यक्षं भिन्नमात्रंशे मेयांशो तद्विलक्षणम् / गुरुज्ञनि वदन्नेकं नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् / / जातिव्यक्त्यात्मक वस्तु वदन्ननुभवोचिम् / भट्रो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // अबद्ध परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः। बुवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् // ब्रुवाणा भिन्नाभिन्नार्थान्नयभेदव्यपेक्षया। प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् / / ', अध्यात्मसार, 45-51 -सम्पादक 28 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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