Book Title: Anya Darshano me Anekantvad ke Tattva Author(s): Suvratmuni Shastri Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ इस प्रकार बौद्ध-परम्परा को भी अनेकान्तवाद, किसी न किसी रूप में अभिमत रहा है। यूनान देश के महान् विचारक एवं दार्शनिक सुकरात, अफलातूं और अरस्तू ने भी अपने विचारों के प्रतिपादन में ज्ञातभाव अथवा अज्ञातभाव से अनेकान्त का कथन किया ही है। सुकरात को अपने ज्ञान की अपूर्णता का, उसकी अल्पता का पूरा परिज्ञान था। इस मर्यादा के भान को ही उसने ज्ञान अथवा बुद्धिमत्ता कहा है । वह कहा करता था कि.... “मैं ज्ञानी हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं अज्ञ हूं। दूसरे लोग ज्ञानी नहीं हैं। क्योंकि वे यह नहीं जानते हैं कि वे अज्ञ हैं"। सुकरात के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि उसका कथन अनेकान्तवाद के अनुरूप है। सुकरात के शिष्य प्लेटो ने कहा था कि हम लोग सागर के किनारे खेलने वाले उन बच्चों के समान हैं जो अपनी सीपियों से सागर के अथाह जल को नापना चाहते हैं । सत्य यह है कि हम सीपियों में पानी भर-भरकर कभी उसे खाली नहीं कर सकते । फिर भी अपनी छोटी-छोटी सीपियों में जो पानी इकट्ठा करना चाहते हैं, वह उस महासागर का ही एक अंश है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता । अफलातूं का यह कथन स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के अत्यन्त निकट है। अरस्तू कहा करता था कि एक ओर अत्याचार है ओर दूसरी और अनाचार है। उन दोनों के बीच में जो कुछ है वही सदाचार है। क्योंकि अत्याचार और अनाचार दोनों पापरूप हैं। धर्म तो एकमात्र सदाचार है, जो दोनों के मध्य स्थित है, जो मध्य में स्थित होता है वही वस्तुतः धर्म होता है । अरस्तू के इस कथन में अनेकान्त स्पष्ट ही परिलक्षित होता है। भले ही उसका कथन अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद शब्दों में न किया गया हो। जर्मनी का महान् दार्शनिक 'हिगेल' अपने युग का एक महान् विचारक था और समन्वयवादी विचारक था । दर्शनशास्त्र में इसके युग से पूर्व जो कुछ लिखा गया था और स्वयं उसके युग के अन्य दार्शनिकों ने जो कहा था, उसमें जहां-जहां विसंगति रह गई थी, हिगेल ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसकी संगति और समन्वय में लगा दी थी। उनका कथन सापेक्षता को लेकर होता था। वर्तमान युग में भारत में समन्वयवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में स्वामी विवेकानन्द जी ने महत्वपूर्ण कार्य किया था। भारतीय दर्शनों में स्वामी जी ने जो एक निकट का समन्वय देखा था, उसी का प्रतिपादन उन्होंने यूरोप में जाकर किया था। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द जी ने वही कार्य किया जो कार्य परम्परा से जैन-आचार्य करते आ रहे थे। इस प्रकार देखा जाता है कि अनेकान्तवाद सर्वत्र व्याप्त है। उसे अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद इन शब्दों से अभिहित किया जाए अथवा न किया जाए, पर भारत के समग्र दर्शनों में और पाश्चात्य दर्शनों में भी यत्र-तत्र किसी-न-किसी रूप में उसे स्वीकार किया ही गया है । सत्य से कभी इन्कार नहीं किया जा सकता। जैन परम्परा के दार्शनिकों में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन तार्किक शैली से प्रस्तुत करने वाले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर रहे हैं। उन्होंने अपने ‘सन्मतिसूत्र' नामक ग्रन्थ में अनेकान्त-दृष्टि पर व्यापक रूप से विचार किया है। आचार्य समन्तभद्र जी ने अपने 'आप्तमीमांसा' ग्रन्थ में स्याद्वाद का प्रतिपादन ताकिक शैली में किया है। वैसे तो जैन-परम्परा के प्रत्येक दार्शनिक ने कम या अधिक रूप में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के सम्बन्ध में कुछ न कुछ लिखा ही है किन्तु उक्त दोनों आचार्यों ने तो अपनी सम्पूर्ण शक्ति अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के स्थापन में ही लगा दी थी। कुछ विद्वान् अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को एक-दूसरे का पर्यायवाची समझ लेते हैं। परन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि अनेकान्त एक वस्तुपरक दृष्टि है, एक वस्तु सम्बन्धी विचार है, वस्तु के सम्बन्ध में सोचने की एक पद्धति है। स्याद्वाद का अर्थ है-वस्तु का विभिन्न गुण-कर्मों की अपेक्षा विशेष से कथन करना। अनेकान्त दृष्टि को जिस भाषा और जिस पद्धति से अभिव्यक्त किया जाता है। वास्तव में उसे ही स्याद्वाद कहा जाता है। प्राचीन युग में भारतीय दर्शनों में अनेक वाद-विवाद, प्रदिवाद दृष्टिगोचर होते हैं। जहां वाद होता है वहां प्रतिवाद अवश्य ही होगा और जहां प्रतिवाद होता है वहां संघर्ष अवश्य होगा ही। इस स्थिति में संघर्ष को टालने के लिए अथवा वाद-विवाद की कटुता को मिटाने के लिए किसी ऐसे सिद्धान्त की आवश्यकता थी, जो उनमें समन्वय स्थापित कर सके। उस युग की इस मांग को अनेकान्तवाद ने पूरा किया था। यद्यपि अनेकान्त का खण्डन जैन-परम्परा को छोड़कर अन्य सभी परम्परा के विद्वानों ने किया था, तथापि उसे किसी न किसी रूप में स्वीकार भी अवश्य किया गया। जैसे वेदान्त-दर्शन एकान्त-नित्यवादी दर्शन रहा है और बौद्ध-दर्शन एकान्त-क्षणिकवादी दर्शन रहा है। सत् क्या है ? इसके उत्तर में वेदान्त कहता है कि वह एक है और नित्य है । बौद्ध-दर्शन कहता है-सत् अनेक हैं और वे सब क्षणिक हैं। इस प्रकार भारत में दोनों प्रसिद्ध दार्शनिक-पक्ष एक-दूसरे के विरोध में खड़े थे। यह कहना होगा कि सांख्य ने सत्य को एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य न मानकर परिणामी-नित्य कहा था। इसका अर्थ यह है कि परिणामवाद ने कुछ सीमा तक उस कटुता को दूर करने का प्रयत्न अवश्य किया था, परन्तु पूर्णतः नहीं । क्योंकि सांख्य ने अपने अभिमत पच्चीस तत्वों में से एक पुरुष को कटस्थ नित्य माना है। उसने एकमात्र प्रकृति को ही परिणामी माना है। चेतन को परिमाणी नहीं माना। समस्या का समाधान होकर भी नहीं हो सका। वाद-प्रतिवाद की परम्परा का क्रम चलता रहा, उसका अन्त न हुआ। जैन दर्शन मीमांसा २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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