Book Title: Anusandhan 2008 03 SrNo 43
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 86
________________ अनुसन्धान ४३ छे. तेनी कर्ताना स्वहस्ते लखाएल प्रतिना आधारे थयेनु सम्पादन अनुसन्धान ना कोई अङ्कमा प्रकाशित छे. ते आ सङ्ग्रहमां प्रथम स्थान पामेल छे. ते पछी उपाध्याय यशोविजय गणीनी तथा उपाध्याय समयसुन्दर गणीनी मङ्गलवाद - विषयक चर्चा अहीं उध्धृत छे. तेमज हरिराम तर्कवागीश तथा गङ्गेश उपाध्यायना ग्रन्थोनो मङ्गलवाद पण आमां आपेल छे. अभ्यासक्रमो माटे एक सरस सङ्कलन. ४. मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि, ५. दादा श्रीजिनकुशलसूरि ले. अगरचंद व भंवरलाल नाहटा, सं. म.विनयसागर; प्र. प्राकृत भारती, जयपुर; परिमार्जित संस्करण : ई. २००८ दोनों पुस्तकों में शीर्षक में बताये गये खरतरगच्छीय दो महान् आचार्यों के जीवनविषयक लेख-सामग्री संञ्चित की गई है । ऐतिहासिक जानकारी के लिए उपयुक्त प्रकाशन । ६. आचाराङ्गसूत्र : सटीक : प्रथम विभाग; संशोधक : पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक; सं. मुनि जम्बूविजय; प्र. सिद्धि भुवन मनोहर जैन ट्रस्ट, अमदावाद; ई. २००८ श्रीशीलाचार्यविरचित वृत्तियुक्त आचाराङ्गसूत्रना प्रथम श्रुतस्कन्धनां प्रथम चार अध्ययन जेटला अंशनु, विविध अनेक हाथपोथीओना आधारे थयेल सम्पादन. टिप्पणीओमां पाठान्तरोनुं वैविध्य ध्यानार्ह छे. सम्पादक मुनिराजे जणाव्यु छ के-टिप्पणीगत पाठान्तरोमां घणा पाठो उपर मूकवा योग्य जणाया छे, परन्तु अमे टिप्पणीमां ज ते रहेवा दीधा छे. . मारा नम्र मते आम करवाने बदले वधु शुद्ध-सारा लागता पाठ उपर लीधा होत तो तेमनी विद्वत्तापूर्ण दृष्टिनो लाभ मळ्यो होत, अने सम्पादक तरीके तेमनुं लखेलुं नाम सार्थक ठरत. वळी, तेमने आचाराङ्ग-वृत्तिनुं सम्पादन करवानी इच्छा छे, ते अपेक्षाए पण तेमनुं थोडंक काम हळवू थयुं होत. ___ मारी जाणकारी प्रमाणे, पुण्यविजयजीए आ टीकाग्रन्थनी प्रतिलिपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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