Book Title: Antaryatra ek Drushti
Author(s): 
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ S wamisa kake k 4 संस्तव / इन दूषणों से साधक को प्रतिपल प्रतिक्षण है, अभौतिक है / शरीर में ज्ञान नहीं, पर आत्मा बचते रहना है। ज्ञानमय है दर्शनमय है वह ज्ञाता-द्रष्टा है। पर ___ व्यवहार सम्यक्त्व को पाँच रूप से देखा जा शरीर अनित्य है, विनाशी है, सड़न-गलन स्व१सकता है, जिसे सम्यक्त्व के पाँच लक्षण कहे हैं- भाव वाला पुद्गल है। जबकि आत्मा नित्य है, सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य। अविनाशी है / वह न पानी से गलता है, न हवा से समयाभाव से इस सम्बन्ध में इस समय विवेचन सूखता है, न शस्त्र उसे काट सकता है, न अग्नि नहीं करूंगी। उसे जला सकती है। वह न सड़ता है और उसका ___अब हमें समझना है कि निश्चयदृष्टि से सम्य- न विध्वंस ही होता है। ग्दर्शन क्या है ? निश्चयदृष्टि से आत्मा ही देव है, इसीलिए सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मानस का स्वरूप आत्मा ही गुरु है और आत्मभाव में रमण करना इस प्रकार प्रस्तुत किया हैही धर्म है / आत्मा अकाम निर्जरा के द्वारा सात सम्यग्दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल / कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को कम करते-करते जब अन्तर थी न्यारो रहे ज्यों धाय खिलावे बाल / / ना देश न्यून कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति वाला बन जाता है / तब आत्मा में सहज उल्लास समु धाय पन्ना ने अपने पुत्र का बलिदान करके भी त्पन्न होता है / यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनि महाराणा उदयसिंह की रक्षा की थी। वह अन्तर्मन वत्तिकरण से रागद्वेष की ग्रन्थी का जब भेदन - में समझती थी, उदयसिंह मेरा पुत्र नहीं है तथापि वह कर्तव्य से विमुख नहीं हुई वैसे ही सम्यग्दृष्टि करता है, तब निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। संसार में रहकर भी संसार से अलग-थलग रहता निश्चय सम्यग्दृष्टि साधक भेदविज्ञान के हथौड़े से है। उसका तन संसार में रहता है किन्तु मन मोक्ष आत्मा पर लगे हुए कर्मबन्धनों को तोड़ डालता है, ___ में रहता है / वह सदा निजभाव और परमात्मभाव जन्म-मरणरूपी संसार का उच्छेद कर देता है / भेद Hद में रमण करता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने यह विज्ञान के प्रथम प्रहार में ही कषाय चेतना चूर-चूर घोषणा की किहोने लगती है / जन्म-मरण के चक्र मिटने लगते हैं / भेदविज्ञान से आत्मा अपने स्वभाव में अव "समत्तदंसी न करेइ पावं।" स्थित हो जाता है। निश्चय और व्यवहार दोनों ही दष्टियों से l आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में हमने सम्यग्दर्शन पर चिन्तन किया है। निश्चय ॐ भेदविज्ञान का तात्पर्य समझाते हुए स्पष्ट शब्दों सम्यग्दर्शन एक अनुभूति है और व्यवहार सम्यग्में कहा है दर्शन उसकी अभिव्यक्ति है। दोनों का मधुर समअन्नमिमं सरीरं अन्नो जीवत्ति एवं कयबद्धी। न्वय ही परिपूर्णता का प्रतीक है इसीलिए मैंने अपने दक्ख परिकिलेसकरं छिन्द ममत्तं सरीरओ।। प्रवचन के प्रारम्भ में सम्राट श्रेणिक का उदाहरण यह शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है। इस देकर यह तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि प्रकार तत्त्व-बुद्धि से दुःखोत्पादक और क्लेशजनक वे क्षायिक सम्यक्त्व के धारी थे। वे आत्मभाव में 3) शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता है। रमण करते थे तथापि देव, गुरु और धर्म के प्रति 3 . यह स्पष्ट है कि आत्मा और शरीर इन दोनों उनके अन्तर्मन में कितनी अपार श्रद्धा थी ? आज र का स्वभाव, धर्म, गुण, प्रभृति भिन्न-भिन्न है / दोनों का साधक उस आदर्श को अपनाएगा तो उसका में आत्मीयता और तादात्म्य कभी हो नहीं सकता। इहलोक और परलोक दोनों ही सुखी होंगे। शरीर जड़ है, भौतिक है, पुद्गल है / आत्मा चेतन सप्तम खण्ड : विचार मन्थन 481 GIC - 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International ForDrivated Personalitice Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4