Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
RA
२. अन्तर्यात्रा : एक दृष्टि
६
प्रथम देवलोक के इन्द्र, 'शकेन्द्र' आनन्द सम्राट के सन्निकट जब वह मायावी साधु विभोर होकर कहने लगे-धन्य है श्रेणिक सम्राट पहुँचा, तब सम्राट ने कहा-तुमने कन्धे पर को, जिनके अन्तर्मानस में देव, गुरु और धर्म के यह जाल क्यों डाल रखी है ? श्रमण वेश को क्यों प्रति अनन्त आस्था है। कोई देवशक्ति भी उनकी लज्जित कर रहे हो? श्रद्धा को हिला नहीं सकती। धन्य है क्षायिक
उस मायावी साधु ने मुस्कराते हुए नाटकीय सम्यक्त्वधारी सुश्रावक को।
ढंग से कहा-राजन् ! मैं पहले क्षत्रिय था । मांस शकेन्द्र के मुखारविन्द से भावपूर्ण उद्गार और मछलियाँ खाने की आदत थी। भगवान् श्रवण कर एक देव ने कहा-स्वामी ! आप अत्य. महावीर के सभी साधु मांसाहार और मत्स्याहार । धिक भावुक है । भावना के प्रवाह में आप बहते करते हैं उनके परम भक्त लोग उन्हें गुप्त रीति से रहते हैं । मानव की क्या शक्ति है जो हमारे सामने लाकर दे देते हैं। पर मैं भोला रहा, मेरे कोई 1 टिक सके। कपूर की तरह उसकी श्रद्धा प्रतिकूल भक्त नहीं, जिस कारण विवश होकर मुझे मछ- पवन चलते ही उड़ जायेगी। यदि आपको लियाँ पकड़ने हेतु सरोवर पर जाना पड़ रहा है। विश्वास न हो तो मैं इसे सिद्ध कर बता दूंगा। सभी श्रोतागणों की श्रद्धा डगमगा गई। उनके शक्रन्द्र मौन रहे और वह दव परीक्षा की कसौटी
मुखारविन्द से अनास्था के स्वर फूट पड़े, पर पर कसने हेतु उसी क्षण वहाँ से चल पड़ा।
सम्राट श्रेणिक ने कहा-तुम मिथ्या बोल रहे राजगृह नगर के निवासी भगवान महावीर के हो । अपना पाप उन महान् पुण्य पुरुषों पर मंढ़ने आगमन के समाचारों को सुनकर आनन्द विभोर का प्रयास कर रहे हो। धिक्कार है तुम्हें, जो इस थे । सम्राट श्रेणिक ने सुना। उसका मन मयूर प्रकार मिथ्या प्रलाप करते हो। नाच उठा, हृदय-कमल खिल उठा। वह सपरिवार सम्राट की सवारी आगे निकल गई। चतुरंगिणी सेना सजाकर श्रमण भगवान् महावीर लोगों ने देखा-एक सगर्भा साध्वी किसी दुकान के दर्शन हेतु चल पड़ा। ज्योंही मध्य बाजार के से अजमा, किसी दुकान से सोंठ और किसी दुकान बीच सवारी पहुँची, त्योंही उस देव ने अपनी माया से घी की याचना कर रही है । वह कह रही हैफैलाई । देव ने एक श्रमण का वेश धारण किया। "मैं आसन्नगर्भा हूँ इसलिए मुझे इन वस्तुओं की पर कन्धे पर मछलियों को पकड़ने का जाल पड़ा आवश्यकता है ।" हुआ था। वह मछली पकड़ने हेतु सरोवर की सम्राट के साथ वाले व्यक्तियों ने कहाओर जा रहा था। उसे देखकर कुछ व्यक्तियों ने स्वामी ! आपने पहले गुरुदेव के दर्शन किये अब उपहास के स्वर में कहा-महाराज ! देखिये, वे गुरुणी जी के भी दर्शन कर लीजिए । देखिये, भग
आपके गुरुवर आ रहे हैं । पहले उनके दर्शन कर वान् महावीर के श्रमण और श्रमणियों का कितना GN लीजिए।
नतिक पतन हो चुका है ?
४७८
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थORG
For Private
Personal use only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्राट के सामने वह साध्वी आकर खड़ी हो गई और कहने लगी- मेरे प्रसूति की व्यवस्था करवा दीजिए। आप सोचते होंगे कि मैं पतिता हूँ, पर भगवान् महावीर की सभी साध्वियाँ इसी तरह चरित्रहीना हैं ।
सम्राट ने सोश मुद्रा में कहा- तुम पतिता हो और अपने दोष को छिपाने हेतु तप और त्याग की ज्वलन्त प्रतिमाओं पर लांछन लगा रही हो ? धिक्कार है तुझ । यह कहकर सम्राट ने अपनी सवारी आगे बढ़ा दी। कुछ ही दूर सम्राट की सवारी आगे पहुँची कि एक दिव्य पुरुष ने प्रकट होकर कहा - धन्य है, जैसा शकेन्द्र ने कहा था उससे भी अधिक आपको आस्थावान देखकर मेरा हृदय श्रद्धा से आपके चरणों में नत है । मैंने ही परीक्षा लेने हेतु साधु और साध्वी का रूप धारण किया था, पर आप परीक्षा में पूर्ण सफल हुए ।
सम्राट् श्रेणिक न बहुश्र ुत थे, न महामनीषी थे, न वाचक थे, पर सम्यग्दृष्टि होने के कारण आगमी चौबीसी में वे तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करेंगे। कहा है
न सेणिओ आसि तया बहुस्सओ
न यावि पन्नतिधरो न वायगो । सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सई
समिक्ख पन्नाह वरं खु दंसणं ॥ सम्यग्दर्शन के दो प्रकार है । एक व्यावहारिक सम्यग्दर्शन है और दूसरा निश्चयसम्यग्दर्शन । व्यवहारसम्यग्दर्शन वह कहलाता है जिसमें साधक सर्वज्ञ सर्वदर्शी अट्ठारह दोष रहित वीतराग प्रभु को देव के रूप में स्वीकार करता है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति के धारक निर्ग्रन्थ संत को गुरु रूप में मानता है । अहिंसा, संयम, तपरूप धर्म को स्वीकार करता है । इस प्रकार देव, गुरु धर्म के प्रति जो पूर्ण निष्ठावान होता है वह व्यवहार की दृष्ट से सम्यग्दृष्टि कहलाता है। उसके जीवन के कण-कण में, मन के अण- अणु में देव गुरु धर्म के प्रति अपार आस्थाएँ होती हैं । सम्राट् श्रेणिक की
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
Jain Cation Internationa
तरह वह सदा परीक्षण प्रस्तर पर खरा उतरता है । उपासकदशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों का वर्णन आता है जिनकी देव परीक्षा लेते हैं । पर वे मेरु पर्वत की तरह अडोल रहे, अकम्प रहे । पर आज हमारी श्रद्धा कितनी कमजोर है, मन्दिर की पताका की तरह अस्थिर है । हम मिथ्या और कपोल कल्पित बात को सुनकर ही विचलित हो जाते हैं, हमारी आस्थाएँ डगमगा जाती हैं । हम कहलाने को सम्यग्दृष्टि और श्रावक कहलाते हैं पर हमें थर्मामीटर लेकर अपने अन्तर्हृदय को मापना है कि हमारे में सम्यग्दर्शन है या नहीं । केवल बातें बनाने से सम्यग्दर्शन नहीं आता । कदाचित् भ्रमवश मन में कुशंका उत्पन्न हो जाए तो सम्यग्दृष्टि साधक का दायित्व है उस कुशंका का पहले निवारण करें । सम्यग्दृष्टि भाडर प्रवाही नहीं होता । वह अपनी मेधा से सत्य-तथ्य का निर्णय करता है ।
जैन साहित्य में आई हुई एक घटना है। एक महान् आचार्य अपने विराट शिष्य समुदाय सहित विहार करते हुए एक नगर में पधारने वाले थे । जब नागरिकों ने सुना उनका हृदय बाँसों उछल पड़ा। हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण आचार्य प्रवर के स्वागत हेतु बरसाती नदी की तरह उमड़ते हुए आगे कदम बढ़ा रहे थे । आचार्य प्रवर कहाँ तक आ गये हैं यह जानने हेतु एक जिज्ञासु ने सामने से आते हुए राहगीर से पूछा- बताओ, हमारे गुरुदेव कहाँ तक आ गये हैं ।
राहगीर ने कहा- रास्ते में जो तालाब है उस तालाब पर बैठकर वे पानी पी रहे थे। मैं उन्हें तालाब में पानी पीते छोड़ आया हूँ ।
राहगीर के मुंह से अप्रत्याशित बात सुनकर सभी एक-दूसरे का मुँह झांकने लगे। एक दूसरे से कहने लगे- बड़ा अनर्थ है । आचार्य होकर तालाब में पानी पीये, जो श्रमणमर्यादा के विपरीत है । हम तो उन्हें आचारनिष्ठ मान रहे थे, पर घोर कलियुग आ गया है। आचार्य भी आचार्य की
साध्वीरत्न अभिनन्दन ग्रन्थ
Private & Personal use only
४७६
www.jantuvary.org
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
मर्यादा को विस्मृत हो चुके हैं फिर दूसरे सन्तों का आचार्यदेव को अनास्था का कारण ज्ञात हो तो कहना ही क्या ? आगे बढ़ते हुए कदम एक क्षण गया और उन्होंने कहा कि यहाँ के प्रमुख विवेकमें रुक गये और सभी श्रद्धालुगण नगर की ओर शील श्रद्धालुओं को तुम संदेश दो कि आचार्य प्रवर लोट पड़े ।
तुम्हें बुला रहे हैं। सन्देश सुनते ही श्रद्धालुगण है धीरे-धीरे रास्ते को पार करते हुए आचार्य उपस्थित हुए । आचार्यप्रवर ने कहा-जिस व्यक्ति नगर में पहुँचे । पर चारों ओर अनास्था का वाता
ने यह बात कही कि हम तालाब में पानी पी रहे वरण था। न स्वागत था, न सन्मान था। पूछते- थे आप उस व्यक्ति को जरा बुलायें । सनते ही कुछ पाछत आचार्य प्रवर धर्मस्थानक में पहुँचे । आचार्य तमाशबीन यह सोचकर कि अब बड़ा मजा आयेगा का प्रवर सोचने लगे कि इस नगर के श्रद्धालओं की उसे पकड़कर बाजार से ले आये। भक्ति के सम्बन्ध में मैंने बहत कछ सन रखा है पर आचार्यप्रवर ने उस राहगीर से पूछा-तम JA आज तो बिल्कुल विपरीत ही दिखाई दे रहा है। उधर से आ रहे थे और हम लोग तालाब की पाल 71 श्रद्धालुओं की श्रद्धा क्यों डगमगा गई है ? इनका पर बैठे हुए थे, बताओ तालाब में पानी था या आचरण ही इस बात का साक्षी है कि इनके मन में नहीं ? उस राहगीर ने कहा-उस तालाब में तो एक कहीं भ्रम का भूत पैठ गया है और जब तक वह बूद भी पानी नहीं था। फिर हम पानी कहाँ से पी नहीं निकलेगा तब तक उनका अन्तनिस ज्योति- रहे थे? उस राहगीर किसान ने कहा-तुम्हारे पास ।। र्मय नहीं बनेगा।
जो लकड़ी के पात्र रहते हैं। उसमें जो पानी था । ____ आचार्य प्रवर ने एक भद्र श्रावक को अपने
वह पानी तुम पी रहे थे। पास बुलाया और स्नेहसुधा स्निग्ध शब्दों में उससे ।
आचार्य देव ने श्रोताओं को कहा-बताओ,
इसमें हमने किस दोष का सेवन किया। हम जिस पूछा कि बताओ हमने तुम्हारे नगर की बहुत ,
गाँव से आये थे, वहाँ से अचित्त पानी साथ लाये प्रशंसा सुनी थी । यहाँ की भक्ति सुनकर ही हम यहाँ पर विविध कष्ट सहन कर आये हैं पर आज
थे । क्षेत्र मर्यादा समाप्त हो गयी थी, इसलिए हमने
वहाँ पर पानी का उपयोग कर लिया था। सभी न तो एक श्रावक दिखाई दे रहा है और न एक
श्रोताओं को अपनी भूल ज्ञात हुई कि हमने बिना श्राविका ही । क्या बात है ?
निर्णय के ही आचार्यदेव पर और संतों पर लांछन उस भोले श्रावक ने बताया कि हम, हमारे लगाया। सभी ने उठकर नमस्कार कर अपने अपसंघ के सभी प्रमुख श्रावक और श्राविकाएं आपको राध की क्षमायाचना की । इस प्रकार कई बार लिवाने हेतु मोलों तक पहुँचे। बहुत ही उल्लास भ्रम से भी अनास्था पैदा हो जाती है । पर सम्यऔर उत्साहमय वातावरण था । सभी अपने आपको दृष्टि साधक भ्रम के जाल में उलझता नहीं। वह १ धन्य अनुभव कर रहे थे। सामने से राहगीर ने सत्य तथ्य को समझता है । वह जानता है कि शंका
हमारी जिज्ञासा पर बताया था कि आप तालाब कुशंकाओं से सम्यक्त्व का नाश होता है । सम्यक्त्व C पर पानी पी रहे हैं इसलिए हमारे सभी के मन का आलोक धुंधला होता है। चाहे देव के सम्बन्ध
अनास्था से भर गये । जैन सन्त कच्चे पानी को में हो, चाहे गुरु के सम्बन्ध में हो और चाहे स्पर्श भी नहीं करता पर आप तो अपने शिष्यों के धर्म के सम्बन्ध में हो, वह पूर्ण रूप से आस्थावान साथ तालाब पर पानी पी रहे थे। हमारा अनमोल बनता है। सिर ऐरे-गैरे के चरणों में झुकने के लिए नहीं है। सम्यक्त्व के पांच दूषण है। शंका, काँक्षा, इसीलिए हम सब लौट आये ।
विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड
VAAN
४८०
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
हा
साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
ISRO
Jain Eden
International
A P
ate & Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ S wamisa kake k 4 संस्तव / इन दूषणों से साधक को प्रतिपल प्रतिक्षण है, अभौतिक है / शरीर में ज्ञान नहीं, पर आत्मा बचते रहना है। ज्ञानमय है दर्शनमय है वह ज्ञाता-द्रष्टा है। पर ___ व्यवहार सम्यक्त्व को पाँच रूप से देखा जा शरीर अनित्य है, विनाशी है, सड़न-गलन स्व१सकता है, जिसे सम्यक्त्व के पाँच लक्षण कहे हैं- भाव वाला पुद्गल है। जबकि आत्मा नित्य है, सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य। अविनाशी है / वह न पानी से गलता है, न हवा से समयाभाव से इस सम्बन्ध में इस समय विवेचन सूखता है, न शस्त्र उसे काट सकता है, न अग्नि नहीं करूंगी। उसे जला सकती है। वह न सड़ता है और उसका ___अब हमें समझना है कि निश्चयदृष्टि से सम्य- न विध्वंस ही होता है। ग्दर्शन क्या है ? निश्चयदृष्टि से आत्मा ही देव है, इसीलिए सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मानस का स्वरूप आत्मा ही गुरु है और आत्मभाव में रमण करना इस प्रकार प्रस्तुत किया हैही धर्म है / आत्मा अकाम निर्जरा के द्वारा सात सम्यग्दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल / कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को कम करते-करते जब अन्तर थी न्यारो रहे ज्यों धाय खिलावे बाल / / ना देश न्यून कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति वाला बन जाता है / तब आत्मा में सहज उल्लास समु धाय पन्ना ने अपने पुत्र का बलिदान करके भी त्पन्न होता है / यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनि महाराणा उदयसिंह की रक्षा की थी। वह अन्तर्मन वत्तिकरण से रागद्वेष की ग्रन्थी का जब भेदन - में समझती थी, उदयसिंह मेरा पुत्र नहीं है तथापि वह कर्तव्य से विमुख नहीं हुई वैसे ही सम्यग्दृष्टि करता है, तब निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। संसार में रहकर भी संसार से अलग-थलग रहता निश्चय सम्यग्दृष्टि साधक भेदविज्ञान के हथौड़े से है। उसका तन संसार में रहता है किन्तु मन मोक्ष आत्मा पर लगे हुए कर्मबन्धनों को तोड़ डालता है, ___ में रहता है / वह सदा निजभाव और परमात्मभाव जन्म-मरणरूपी संसार का उच्छेद कर देता है / भेद Hद में रमण करता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने यह विज्ञान के प्रथम प्रहार में ही कषाय चेतना चूर-चूर घोषणा की किहोने लगती है / जन्म-मरण के चक्र मिटने लगते हैं / भेदविज्ञान से आत्मा अपने स्वभाव में अव "समत्तदंसी न करेइ पावं।" स्थित हो जाता है। निश्चय और व्यवहार दोनों ही दष्टियों से l आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में हमने सम्यग्दर्शन पर चिन्तन किया है। निश्चय ॐ भेदविज्ञान का तात्पर्य समझाते हुए स्पष्ट शब्दों सम्यग्दर्शन एक अनुभूति है और व्यवहार सम्यग्में कहा है दर्शन उसकी अभिव्यक्ति है। दोनों का मधुर समअन्नमिमं सरीरं अन्नो जीवत्ति एवं कयबद्धी। न्वय ही परिपूर्णता का प्रतीक है इसीलिए मैंने अपने दक्ख परिकिलेसकरं छिन्द ममत्तं सरीरओ।। प्रवचन के प्रारम्भ में सम्राट श्रेणिक का उदाहरण यह शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है। इस देकर यह तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि प्रकार तत्त्व-बुद्धि से दुःखोत्पादक और क्लेशजनक वे क्षायिक सम्यक्त्व के धारी थे। वे आत्मभाव में 3) शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता है। रमण करते थे तथापि देव, गुरु और धर्म के प्रति 3 . यह स्पष्ट है कि आत्मा और शरीर इन दोनों उनके अन्तर्मन में कितनी अपार श्रद्धा थी ? आज र का स्वभाव, धर्म, गुण, प्रभृति भिन्न-भिन्न है / दोनों का साधक उस आदर्श को अपनाएगा तो उसका में आत्मीयता और तादात्म्य कभी हो नहीं सकता। इहलोक और परलोक दोनों ही सुखी होंगे। शरीर जड़ है, भौतिक है, पुद्गल है / आत्मा चेतन सप्तम खण्ड : विचार मन्थन 481 GIC - 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ForDrivated Personalitice Only