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सम्राट के सामने वह साध्वी आकर खड़ी हो गई और कहने लगी- मेरे प्रसूति की व्यवस्था करवा दीजिए। आप सोचते होंगे कि मैं पतिता हूँ, पर भगवान् महावीर की सभी साध्वियाँ इसी तरह चरित्रहीना हैं ।
सम्राट ने सोश मुद्रा में कहा- तुम पतिता हो और अपने दोष को छिपाने हेतु तप और त्याग की ज्वलन्त प्रतिमाओं पर लांछन लगा रही हो ? धिक्कार है तुझ । यह कहकर सम्राट ने अपनी सवारी आगे बढ़ा दी। कुछ ही दूर सम्राट की सवारी आगे पहुँची कि एक दिव्य पुरुष ने प्रकट होकर कहा - धन्य है, जैसा शकेन्द्र ने कहा था उससे भी अधिक आपको आस्थावान देखकर मेरा हृदय श्रद्धा से आपके चरणों में नत है । मैंने ही परीक्षा लेने हेतु साधु और साध्वी का रूप धारण किया था, पर आप परीक्षा में पूर्ण सफल हुए ।
सम्राट् श्रेणिक न बहुश्र ुत थे, न महामनीषी थे, न वाचक थे, पर सम्यग्दृष्टि होने के कारण आगमी चौबीसी में वे तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करेंगे। कहा है
न सेणिओ आसि तया बहुस्सओ
न यावि पन्नतिधरो न वायगो । सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सई
समिक्ख पन्नाह वरं खु दंसणं ॥ सम्यग्दर्शन के दो प्रकार है । एक व्यावहारिक सम्यग्दर्शन है और दूसरा निश्चयसम्यग्दर्शन । व्यवहारसम्यग्दर्शन वह कहलाता है जिसमें साधक सर्वज्ञ सर्वदर्शी अट्ठारह दोष रहित वीतराग प्रभु को देव के रूप में स्वीकार करता है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति के धारक निर्ग्रन्थ संत को गुरु रूप में मानता है । अहिंसा, संयम, तपरूप धर्म को स्वीकार करता है । इस प्रकार देव, गुरु धर्म के प्रति जो पूर्ण निष्ठावान होता है वह व्यवहार की दृष्ट से सम्यग्दृष्टि कहलाता है। उसके जीवन के कण-कण में, मन के अण- अणु में देव गुरु धर्म के प्रति अपार आस्थाएँ होती हैं । सम्राट् श्रेणिक की
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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तरह वह सदा परीक्षण प्रस्तर पर खरा उतरता है । उपासकदशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों का वर्णन आता है जिनकी देव परीक्षा लेते हैं । पर वे मेरु पर्वत की तरह अडोल रहे, अकम्प रहे । पर आज हमारी श्रद्धा कितनी कमजोर है, मन्दिर की पताका की तरह अस्थिर है । हम मिथ्या और कपोल कल्पित बात को सुनकर ही विचलित हो जाते हैं, हमारी आस्थाएँ डगमगा जाती हैं । हम कहलाने को सम्यग्दृष्टि और श्रावक कहलाते हैं पर हमें थर्मामीटर लेकर अपने अन्तर्हृदय को मापना है कि हमारे में सम्यग्दर्शन है या नहीं । केवल बातें बनाने से सम्यग्दर्शन नहीं आता । कदाचित् भ्रमवश मन में कुशंका उत्पन्न हो जाए तो सम्यग्दृष्टि साधक का दायित्व है उस कुशंका का पहले निवारण करें । सम्यग्दृष्टि भाडर प्रवाही नहीं होता । वह अपनी मेधा से सत्य-तथ्य का निर्णय करता है ।
जैन साहित्य में आई हुई एक घटना है। एक महान् आचार्य अपने विराट शिष्य समुदाय सहित विहार करते हुए एक नगर में पधारने वाले थे । जब नागरिकों ने सुना उनका हृदय बाँसों उछल पड़ा। हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण आचार्य प्रवर के स्वागत हेतु बरसाती नदी की तरह उमड़ते हुए आगे कदम बढ़ा रहे थे । आचार्य प्रवर कहाँ तक आ गये हैं यह जानने हेतु एक जिज्ञासु ने सामने से आते हुए राहगीर से पूछा- बताओ, हमारे गुरुदेव कहाँ तक आ गये हैं ।
राहगीर ने कहा- रास्ते में जो तालाब है उस तालाब पर बैठकर वे पानी पी रहे थे। मैं उन्हें तालाब में पानी पीते छोड़ आया हूँ ।
राहगीर के मुंह से अप्रत्याशित बात सुनकर सभी एक-दूसरे का मुँह झांकने लगे। एक दूसरे से कहने लगे- बड़ा अनर्थ है । आचार्य होकर तालाब में पानी पीये, जो श्रमणमर्यादा के विपरीत है । हम तो उन्हें आचारनिष्ठ मान रहे थे, पर घोर कलियुग आ गया है। आचार्य भी आचार्य की
साध्वीरत्न अभिनन्दन ग्रन्थ
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