Book Title: Anekantvad aur Syadwad Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 1
________________ अनेकान्तवाद और स्याद्वाद कोई भी धर्मप्रवर्तक अपने शासनको स्थायी और व्यापक रूप देनेके लिये मनुष्य-समाजके सामने दो बातोंको पेश करता है-एक तो धर्मका उद्देश्य-रूप और दुसरा उसका विधेय-रूप । दूसरे शब्दोंमें धमके उद्देश्यरूपको साध्य, कार्य या सिद्धान्त कह सकते है और उसके विधेय-रूपको साधन, कारण या आचरण कह सकते है । वीरशासनके पारिभाषिक शब्दोंमें धर्म के इन दोनों रूपोंको क्रमसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कहा गया है। प्राणिमात्रके लिये आत्मकल्याणमें यही निश्चय-धर्म उद्दिष्ट वस्तु है और व्यवहारधर्म है इस निश्चय-धर्मकी प्राप्तिके लिये उसका कर्त्तव्यमार्ग । इन दोनों बातोंको जो धर्मप्रवर्तक जितना सरल, स्पष्ट और व्यवस्थित रीतिसे रखनेका प्रयत्न करता है उसका शासन संसारमें सबसे अधिक महत्त्वशाली समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, वह सबसे अधिक प्राणियोंको हितकर हो सकता है। इसलिये प्रत्येक धर्मप्रवर्तकका लक्ष्य दार्शनिक सिद्धान्तकी ओर दौड़ता है। वीरभगवानका ध्यान भी इस ओर गया और उन्होंने दार्शनिक तत्त्वोंको व्यवस्थित रूपसे उनकी तथ्यपूर्ण स्थिति तक पहुँचानेके लिये दर्शनशास्त्रके आधारस्तम्भ रूप अनेकान्तवाद और स्याद्वाद इन दो तत्त्वोंका आविर्भाव किया। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ये दोनों दर्शनशास्त्रके लिये महान गढ़ हैं। जैनदर्शन इन्हींकी सीमामें विचरता हुआ संसारके समस्त दर्शनोंके लिये आज तक अजेय बना हुआ है। दूसरे दर्शन जैनदर्शनको जीतनेका प्रयास करते तो हैं परंतु इन दुर्गाके देखने मात्रसे उनको निःशक्त होकर बैठ जाना पड़ता है-किसीके भी पास इनके तोड़नेके साधन मौजूद नहीं हैं। जहाँ अनेकान्तवाद और स्याद्वादका इतना महत्त्व बढ़ा हुआ है वहाँ यह भी निःसंकोच कहा जा सकता है कि साधारणजनकी तो बात ही क्या ? अजैन विद्वानोंके साथ-साथ प्रायः जैन विद्वान् भी इनका विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं। ___ अनेकान्त और स्यात् ये दोनों शब्द एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? अनेकान्तवाद और स्याद्वादका स्वतन्त्र स्वरूप क्या है ? अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनोंका प्रयोगस्थल एक है या स्वतन्त्र ? आदि समस्याएँ आज हमारे सामने उपस्थित हैं। यद्यपि इन समस्याओंका हमारी व दर्शनशास्त्रकी उन्नति या अवनतिसे प्रत्यक्षरूपमें कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु अप्रत्यक्षरूपमें ये हानिकर अवश्य हैं। क्योंकि जिस प्रकार एक ग्रामीण कवि छंद, अलंकार, रस, रीति आदिका शास्त्रीय परिज्ञान न करके भी छंद, अलंकार आदिसे सुसज्जित अपनी भावपूर्ण कवितासे जगतको प्रभावित करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सर्वसाधारण लोग अनेकान्तवाद और स्याद्वादके शास्त्रीय परिज्ञानसे शून्य होनेपर भी परस्परविरोधी जीवनसंबन्धी समस्याओंका इन्हीं दोनों तत्त्वोंके बलपर अविरोध रूपसे समन्वय करते हुए अपने जीवन-संबन्धी व्यवहारोंको यद्यपि व्यवस्थित बना लेते हैं परन्तु फिर भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंके जीवनसंबन्धी व्यवहारों में परस्पर विरोधीपन होने के कारण जो लड़ाई-झगड़े पैदा होते हैं वे सब अनेकान्तवाद और स्याद्वादके रूपको न समझनेके ही परिणाम हैं। इसी तरह अजैन दार्शनिक विद्वान भी अनेकान्तवाद और स्याद्वादको दर्शनशास्त्रके अंग न मानकरके भी अपने सिद्धान्तोंमें उपस्थित हुई परस्पर विरोधी समस्याओंको इन्हींके बलपर हल करते हए यद्यपि दार्शनिक तत्त्वोंकी व्यवस्था करने में समर्थ होते हए नजर आ रहे हैं, तो भी भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंके सिद्धान्तोंमें परस्पर विरोधीपन होनेके कारण उनके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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