Book Title: Anekantavada Syadvada aur Saptbhangi
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 5
________________ उस अर्थात् जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहन भी सर्वथा सम्भव नहीं है, संसार के एक मात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है । इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकान्तवाद एक व्यावहारिक दर्शन है। इसकी महत्ता उसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर निर्भर है। उसका जन्म दार्शनिक विवादों के सर्जन के लिए नहीं, अपितु उनके निराकरण के लिए हुआ है। दार्शनिक विवादों के बीच समन्वय के सूत्र खोजना ही अनेकान्तवाद की व्यावहारिक उपादेयता का प्रमाण है। अनेकान्तवाद का यह कार्य त्रिविध है १. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा के गुण-दोषों की समीक्षा करना और इस समीक्षा में यह देखने का प्रयत्न करना कि उसकी हमारे व्यावहारिक जीवन में क्या उपयोगिता है। जैसे बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद और अनात्मवाद की समीक्षा करते हुए यह देखना कि तृष्णा के उच्छेद के लिए क्षणिकवाद और अनात्मवाद की दार्शनिक अवधारणाएं कितनी आवश्यक एवं उपयोगी हैं। २. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करना और यह निश्चित करना कि उसमें जो सत्यांश है, वह किसी अपेक्षा विशेष से है। जैसे यह बताना कि सत्ता की नित्यता की अवधारणा द्रव्य की अपेक्षा से अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सत्य है और सत्ता की अनित्यता उसकी पर्याय की अपेक्षा से औचित्यपूर्ण है। इस प्रकार वह प्रत्येक दर्शन की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करता है और वह सापेक्षिक सत्यता किस अपेक्षा से है, उसे भी स्पष्ट करता है। ३. अनेकान्तवाद का तीसरा महत्त्वपूर्ण उपयोगी कार्य विभिन्न एकांतिक मान्यताओं को समन्वय के सूत्र में पिरोकर उनके एकान्त रूपी दोष का निराकरण करते हुए उनके पारस्परिक विद्वेष का निराकरण कर उनमें सौहार्द और सौमनस्य स्थापित कर देना है। जिस प्रकार एक वैद्य किसी विष विशेष के दोषों की शुद्धि करके उसे औषधि बना देता है उसी प्रकार अनेकांतवाद भी दर्शनों अथवा मान्यताओं के एकान्तरूपी विष का निराकरण करके उन्हें एक दूसरे का सहयोगी बना देता है । अनेकांतवाद के उक्त तीनों ही कार्य (Functions) उसकी व्यावहारिक उपादेयता को स्पष्ट कर देते हैं। दर्शन का जन्म दर्शन का जन्म मानवीय जिज्ञासा से होता है । ईसा पूर्व छठी शती में मनुष्य की यह जिज्ञासा पर्याप्त रूप से प्रौढ़ हो चुकी थी । अनेक विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन प्रयत्नशील थे। इन जिज्ञासु चिन्तकों के सामने अनेक समस्याएँ थीं, जैसे- इस दृश्यमान विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका मूल कारण क्या है? वह मूल कारण या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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