________________
६. स्याद् नास्ति च अवक्तव्य च
अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार
(अ) उ
अवक्तव्य है।
अउ वि नहीं है.
(372.372)73 अवक्तव्य है.
७. स्याद् अस्ति च,
नास्ति च
अवक्तव्य च
Jain Education International
अथवा
अ - उवि है.
अ- उवि नहीं हैं
(अ'. अ) य उ
अवक्तव्य है.
xxvii
से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
अथवा
अउ वि नहीं है.
(अ) उ — अवक्तव्य है।
अ- उवि है.
अवि नहीं है (अ) अवक्तव्य
यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा
अवक्तव्य है।
यदि द्रव्य दृष्टि से विचार करते है तो आत्मा नित्य है है और यदि पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं किन्तु यदि अपनी अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है।
सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख किया है किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाएं मानी हैं, उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें तो ये अपेक्षाएं भी अनन्त होंगी क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है। किन्तु इस छोटी सी भूमिका में यह सम्भव नहीं है।
,
इस सप्तभंगी का प्रथम भंग " स्यात् अस्ति " है । यह स्वचतुष्टय को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि । इस प्रकार वस्तु के स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org