Book Title: Anekant darshan ki Prushtha bhumi
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 2
________________ ३३४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मुझे यह न बतलावें-लोक शाश्वत है आदि, फिर तथागतने तो उन्हें अव्याकृत किया है, और वह ( बीचमें ही) मर जायगा। जैसा मालुक्यपुत्त कोई पुरुष गाड़े लेपकाले विषसे युक्त बाणसे बिधा हो उसके हित-मित्र भाई-बन्द चिकित्सकको ले आवें और वह (धायल ) यह कहे कि मैं तबतक इस शल्यको नहीं निकालने दूंगा जबतक अपने बेचनेवाले उस पुरुषको न जान लें कि वह ब्राह्मण है ? क्षत्रिय है ? वैश्य है ? शद्र है ? अमुक नामका, अमुक गोत्रका है ? लम्बा है, नाटा है, मॅझोला है ? आदि । जबतक कि उस बेधनेवाले धनुषको न जान लें कि चाप है या कोदण्ड । ज्याको न जान लें कि वह अर्ककी है या संठेकी ?""तो मालुक्यपुत्त, वह तो अज्ञात ही रह जायेंगे और यह पुरुष मर जायगा। ऐसे ही मालुंक्यपुत्त, जो ऐसा कहे मैं तब तक "और वह मर जायगा। मालुक्यपुत्त, लोक शाश्वत है। इस दृष्टिके होनेपर ही क्या ब्रह्मचर्यवास होगा? ऐसा नहीं । लोक अशाश्वत है, इस दृष्टिके होनेपर ही क्या ब्रह्मचर्यवास होगा ? ऐसा भी नहीं । मालुक्यपुत्त, चाहे लोक शाश्वत है यह दष्टि रहे, चाहे लोक अशाश्वत है यह दृष्टि रहे, जन्म है ही, जरा है ही, मरण है ही, शोक रोना कांदना दुःख दौर्मनस्य परेशानी है ही, जिनके इसी जन्ममें विघातको मैं बतलाता हूँ।"""" इसलिये मालुक्यपुत्त, मेरे अव्याकृतको अव्याकृतके तौरपर धारणकर और मेरे व्याकृतको व्याकृतके तौरपर धारण करें।' इस संवादसे निम्नलिखित बासें फलित होती है१-बुद्धने आत्मा लोक परलोक आदि तत्वोंकी चरचामें न अपमेको उलझाया और न शिष्यों को। २-लोकको चाहे शाश्वत माना जाय या अशाश्वत; उससे ब्रह्मचर्य धारण करनेमें कोई बाधा नहीं है। ३-बुद्धके उपदेशको धारण करनेकी यह शर्त भी नहीं है कि शिष्यको उक्त तत्त्वोंका ज्ञान कराया ही जाय। ४-बुद्धने जिन्हें व्याकृत कहा उन्हें व्याकृत रूपसे और जिन्हें अन्याकृत कहा उन्हें अव्याकृत रूपसे ही धारण करना चाहिए। उस समयका वातावरण आजसे २५००-२६०० वर्ष पहिलेके धार्मिक वातावरणपर निगाह फेकें तो मालम होगा कि उस समय लोक परलोक आत्मा आदिके विषय में मनुष्यकी जिज्ञासा जग चुकी थी। वह अपनी जिज्ञासाको अनुपयोगिताके आवरणमें भीतर ही भीतर मानसिक हीनताका रूप नहीं लेने देना चाहता था। जिन दस प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत रखा, उनका बताना अनुपयोगी कहा, सच पूछा जाय तो धर्म धारण करनेकी आधारभूत बातें वे ही हैं। यदि आत्माके स्वतन्त्र द्रव्य और परलोकगामित्वका विश्वास न हो तो धर्मका आधार ही बदल जाता है। प्रज्ञा पारमिताओंकी परिपूर्णताका क्या अर्थ रह जाता है। 'विश्वके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ? वह कैसा है ? यह बोध हुए बिना हमारी चाका संयत रूप ही क्या हो सकता है । यह ठीक है कि इनके वाद-विवादमें मनुष्य न पड़े पर यदि जरा, मरण, वेदना, रोग आदिके आधारभत आत्माकी ही प्रतीति न हो तो दुष्कर ब्रह्मचर्यवास कौन धारण करे ? बुद्ध के समयमें ६ परिव्राजक थे जिनके संघ थे और जिनकी तीर्थंकरके रूप में प्रसिद्धि थी। सबका अपना तत्त्वज्ञान था। पूर्णकश्यप अक्रियावादी, मक्खलि १. मज्झिमनिकाय हिन्दी अनुवाद । Jain Education International -For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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