Book Title: Andhvishwas evam Miothya Manyato ke Nivaran me Nari ki Bhumika
Author(s): Maya Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 1
________________ अंधविश्वास एवं मिथ्या-मान्यताओं के निवारण में नारी की भूमिका 0 माया जैन, एम. ए. भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सभी को समान स्थान एवं समान अधिकार प्राप्त हैं। जिस तरह हमारी मातृभूमि सहिष्णु मानी गयी है, उतनी ही सहिष्णु नारी है। नारी सेवारूपा और करुणाभूपा है। सेवाशुश्रूषा और परिचर्या, दया, ममता आदि के विषय में जब विचार किया जाता है तो हमारी दृष्टि नारी समाज पर जाती हैं । उसकी मोहक आँखों में करुणारूपी ममता का जल और आँचल में पोषक संजीवनी देखी जा सकती है। कुटुम्ब, परिवार, देश, राष्ट्र, युद्ध, शांति, क्रान्ति, भ्रान्ति, अंधविश्वास, मिथ्या मान्यताओं जैसी प्रतिकल स्थितियाँ क्यों न रही हों नारी सदैव इनसे लड़ती रही और अपने साहस का परिचय देती रही। वह दुःखों को, भारी कार्यों को उठाने वाली क्रेन नहीं है। परन्तु वह इनसे लड़ने वाली एवं निरन्तर चलती रहने वाली प्रारी अवश्य है । मैले आँचल में दुनिया भर के दुःख समेट लेना उसकी महिमा है। बिलखते हुए शिशु को अपनी छाती से लगा लेना उसका धर्म है। वह सभी प्रकार के वातावरण में घुलमिल जाने वाली मधुरभाषिणी एवं धार्मिक श्रद्धा से पूर्ण है। विश्व के इतिहास के पृष्ठों पर जब हमारी दृष्टि जाती है तब ग्रामीण संस्कृति में पलने वाली नारी चक्की, चूल्हे के साथ छाछ को विलोती नजर आती है और संध्या के समय वही अंधेरी रात में प्रकाश के लिए दीपक प्रज्वलित करती है। हर पल, हर क्षण नित्य नये विचारों में डबी हुई रक्षण-पोषण में लगी हुई, अंधविश्वासों से लड़ती हुई नजर आती है। जब वह अपने जीवन के अमूल्य समय को सेवा में व्यतीत कर देती है, तब उसे अंधविश्वास एवं मिथ्यामान्यताओं से कोई लेना-देना नहीं होता है। उसका सबसे बड़ा विश्वास है आदि पुरुष आदिनाथ की ब्राह्मी एवं सुन्दरी जैसी कन्याओं की तरह धार्मिक संस्कारों से मुक्त होकर समाज की सेवा करते रहना। क्योंकि कन्या की धार्मिक भावना पिता के गृह की अपेक्षा अपने पति के गृह में प्रवेश करके स्वच्छ वातावरण को उत्पन्न करना चाहती है। जहाँ ब्राह्मी और सुन्दरी ने नारी के मनोबल को ऊँचा उठाया वहीं दूसरी ओर सभी तीर्थंकरों की माताओं को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। सभी तीर्थंकरों की माताएँ क्षत्रिय कन्यायें थीं। स्वयं तीर्थंकर भी क्षत्रिय थे। क्षत्रिय धर्म बल को प्रदर्शित करने वाला होता है पर धर्म-बल भी उन्हीं में रहा। . राजुल ने परिवार एवं समाज की चिन्ता न करते हुए एक ऐसे रास्ते को अपनाया, जिस पर चलना बड़ा कठिन समझा जाता था। समस्यायें आई और जगह-जगह कष्टों को झेलना पड़ा, पर उन कष्टों की चिन्ता न करते हुए वह मुक्ति-पथ की खोज में लगी रहीं। चन्दना ने धम्मो दीवो संसार समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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