Book Title: Anchalgaccha dwara Mewad Rajya me Jain Dharm ka Utkarsh Author(s): Balwantsinh Mehta Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 3
________________ amo [५५] १२३६ के बीचमें एवं उनके पट्टधर महाप्रभावक श्री जयसिंहरिने राजस्थान में एवं मेवाड़ प्रान्त में विहार किया था। और उनके उपदेश के कारण अनेक जिनमंदिर-निर्माण और अनेक बिंबप्रतिष्ठा संपन्न हुई थीं। ___ सं. १२५५ में अंचलगच्छनायक श्री जयसिंहसूरिने जेसलमेर के राजपूत श्री देवड़ चावड़ा को प्रतिबोध देकर जैनमतानुयायी बनाया एवं प्रोसवालज्ञातिमें सम्मिलित करवाया। देवड़ के पुत्र झामर ने जालोर में एक लाख सत्तर हजार टंकका व्यय करके आदिनाथ प्रभु के शिखरयुक्त मंदिर का निर्माण करवाया। झामर का पुत्र देढिया हुा । वह बहुत प्रतापी था। इसके नाम से 'देढिया' गोत्रनाम उत्पन्न हया जो आज तक विद्यमान है। सं. १२५६ में चित्तौड़ के चावड़ा राउत वीरदत्त ने अंचलगच्छ के जयसिंहसरिके सदुपदेश से जैनधर्म स्वीकार किया। वीरदत्त के वंशज 'निसर' गोत्र प्रसिद्ध हुए। मारवाड़ के कोटडा गाँव के केशव राठोड़ ने सं. १२५९ में जयसिंहरिके उपदेश से जैनधर्म स्वीकार किया था। सं. १२४९ में भिन्नमाल के निकटस्थ रत्नपुर के सहस्त्रगणा गांधी ने जयसिंहसरिके उपदेश से शत्रजय तीर्थ पर अद्भुतजी दादा की विशाल प्रतिभा प्रतिष्ठित करवाई। सं. १२६५ में जयसिंहसूरिके पट्टधर गच्छनायक धर्मघोषसूरि के सदुपदेश से चौहाणवंशज भीम ने जैनधर्म का स्वीकार किया। तब से ओसवाल ज्ञाति में 'चौहाण' गोत्र स्थापित हुआ। जालोर, चित्तौड़ आदि प्रांत में धर्मघोषसरि एवं जयप्रभसूरि के सदुपदेश से जिनमंदिर निर्माण एवं अहिंसा के प्रचार का कार्य हुआ। करणयगिरि के देदाशाह धर्मघोषसूरि के उपदेश से जैन बने । देदाशाह की बहिनने किसी उत्सव में विषमिश्रित भोजन बनाया। धर्मघोषसूरि को ध्यानबल से यह यह वंचना ज्ञात हो गई । इस ज्ञानशक्ति के प्रभाव से बत्तीस साधु एवं सारा संघ मृत्यु से बच गया । अंचलगच्छाधिति प्रा. अजितसिंह एवं रावल समरसिंह का समागम इतिहासप्रसिद्ध है । मेवाड़ में जैनधर्मावलंबियों ने एवं जैनाचार्यों ने, मुनिवरों ने काफी विहार किया था। अंचलगच्छका साधुसमुदाय जो यहाँ बिहरण करता था, उनमें भी मेवाड़ के नाम से मेदपाटी नाम की शाखा अंचलगच्छ में उत्पन्न हुई थी। मेदपाटी शाखा के अंचलगच्छीय उदयराजगणि आदि का पादुकामंदिर प्राज भी नाडोलके बडे जिनमंदिर में विद्यमान है। चौहानों में शाकंभरी, जालौर और नाडोल के राजा बड़े पराक्रमी और साम्राज्यवादी रहे। अंचलगच्छ के प्राचार्यों एवं साधुओं का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वैसे राजस्थान के प्रायः सब ही राजा जैनधर्म का आदर करते थे और पयूषण पर्व के दिनों अमारी की घोषण भी करवाते थे पर इन चौहान राजानों ने तो जैनधर्म को पूर्णरूप से आत्मसात् कर लिया। इन चौहान राजाओं ने जहाँ जहाँ अपनी लड़कियां दीं वहाँ भी उन्होंने जैनमंदिर बनवाये और जैन उपाश्रयों को भूमि दिलवाई और समय समय पर अमारी की घोषणा करवाई। जालोर और नाडोल के राजा चाचिकदेव ने अपनी लड़की जयतल्लदेवी को जब चित्तौड़ के प्रतापी राजा जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह को ब्याही तब चाचिकदेवने अपनी लड़की के दहेज में करेड़ा पार्श्वनाथ के मंदिर की सेवा पूजा के लिये नाडोल आदि कई मंडपिकाओं से कर आदि की लाग लगा दी। વી શઆર્ય કલયાણગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ 2DS Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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