Book Title: Amru Shatak ki Sanskrutik Prushthabhumi Author(s): Ajay Mitra Shastri Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf View full book textPage 5
________________ ११. समाजके निर्धन वर्गकी ओर भी कुछ संकेत मिलते हैं। एक स्थानपर वर्षाऋतुमें टूटे-फूटे घरमें रहनेवाली एक दरिद्र गृहिणी (श्लो० ११८) का उल्लेख है तो दूसरी जगह वर्षाऋतुमें वायुके वेगसे ध्वस्त झोपड़ी में हुए छिद्रोंसे जलके प्रवेश (श्लो० १२६)का उल्लेख भी मिलता है। धाय (धात्री, श्लो० १११) और गुरुजनों (श्लो० १६)का उल्लेख भी मिलता है । १२. घी और मधु भोजनके महत्त्वपूर्ण अंग थे (श्लो० १०९) । एक स्थलपर कहा गया है कि खारे पानीसे प्यास दुगुनी हो जाती है (श्लो० १३०)। मद्यपान सामान्यतः प्रचलित था। मद्य चषकमें किया जाता था। स्त्रियाँ भी सुरापान करने में नहीं हिचकती थीं (श्लो० १२०)। एक श्लोकमें मद्यपानसे मत्त स्त्रीकी चर्चा की गयी है (श्लो० ५५)। १३. चीनी रेशम (चीनांशुक) भारतमें अत्यन्त प्राचीनकालसे बहुत लोकप्रिय था । इसका प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र (ई० पू० चतुर्थ शती)में प्राप्त होता है ।' केवल इसी एक वस्त्रका उल्लेख अमरुशतकमें मिलता है जिससे पूर्व मध्यकालीन भारतमें विशेषतः स्त्रियोंमें, इसकी लोकप्रियता सूचित होती है (श्लो० ७७) स्त्रियोंका सामान्य वेष सम्भवतः दो वस्त्रों का था-अधोवस्त्र, जो वर्तमान धोतीकी तरह पहना जाता था, और उत्तरीय (श्लो० ७८, ११३) जो गुलु बन्दकी तरह कन्धोंपर डाल दिया जाता था । अधोवस्त्र कटि पर गांठ (नीवी, श्लो० १०१, नीवी बन्ध, श्लो० ११२) लगाकर बांधा जाता था। सिले हुए कपड़े भी पहने जाते थे। कञ्चुक (श्लो० ११) अथवा कञ्चुलिका (श्लो० २७), जो आजकलकी चोलीकी तरह था, की चर्चा मिलती है। स्तनों के विस्तारके कारण कञ्चुकके विस्तारके टांकों (सन्धि)के टूटनेका उल्लेख है (श्लो० ११)। कञ्चुलिका गाँठ (वीटिका) बाँधकर पहनी जाती थी २७) । अर्जुनवर्मदेवके अनुसार यह दक्षिणी चोली थी, क्योंकि उसीको बाँधने में तनीका व्यवहार किया जाता था।२ किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि उत्तर भारतमें भी तनी बाँधकर चोली पहनने की प्रथा प्रचलित रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं। आजकल भी उत्तरी भारतमें यह ढंग दिखाई देता है। कञ्चुक स्त्री वेशके रूपमें गुप्तकालके बाद ही भारतीय कलामें अंकित दिखाई देता है। अर्थशास्त्र (२-११-११४) । चीनपटके स्रोतके रूपमें चीन भूमिका उल्लेख कभी-कभी अर्थशास्त्रके परवर्ती होनेका प्रमाण माना जाता है। कुछ चीन विद्या विशारदोंके अनुसार समस्त देशके लिए चीन शब्दका प्रयोग सर्वप्रथम प्रथम त्सिन् अथवा चीन राजवंशके काल (ई० पू० २२१-२०१)में हुआ। इस कठिनाईको दूर करनेके लिए स्व० डॉ० काशीप्रसाद जायसवालने भारतीय साहित्यमें उल्लिखित चीनोंकी पहचान गिलगितकी शीन नामक एक जनजातिसे करनेका सुझाव दिया था। द्रष्टव्य-हिन्दु पॉलिटी १० ११२, टिप्पणी १ । डॉ. मोतीचन्द्र इसकी पहचान काफिरीस्तान, कोहिस्तान और दरद प्रदेशसे करते हैं जहां शीन बोली बोली जाती है । देखिये प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ० १०१। किन्तु यह अधिक सम्भव है कि यह नाम उत्तर-पश्चिमी चीनके सिन् नामक राज्य, जो चुनचिन काल (ई० पू० ४२२४८१) तथा युद्धरत राज्यके काल (ई० पू० ४८१-२२१)में विद्यमान था, से निकला। इसी राज्यके माध्यमसे भारत समेत पश्चिमी संसार और चीनके सम्बन्ध स्थापित हए। द्रष्टव्य-एज ऑफ इम्पीरियल यूनिटी, पृ० ६४४, भाण्डारक प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानकी पत्रिका, खण्ड ४२ (१९६१), पृ० १५०-१५४; आर० पी० कांगले, दी कौटिलीय अर्थशास्त्र : ए स्टेडी, १० ७४-७५ । २. कञ्चलिका चयं दाक्षिणात्य चोलिकारूपैव । तस्या एव ग्रन्थनपदार्थे वोटिकाव्यपदेशः । ३. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, चित्र, २७ । २०२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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