Book Title: Amru Shatak ki Sanskrutik Prushthabhumi
Author(s): Ajay Mitra Shastri
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ १३७), और ईन्धन (श्लो० १३४) का उल्लेख मिलता है। श्लो० १३७में सोनेके घड़े (शातकुम्भ कुम्भ) की चर्चा है। २०. कुछ तत्कालीन शिष्टाचारोंका भी उल्लेख मिलता है। जब कोई प्रिय यात्रापर रवाना होता था तो पुण्याह किया जाता और यात्राके सकुशल सम्पन्न होनेके लिए मंगलकामना की जाती थी (श्लो० ६१)। प्रिय अतिथिके स्वागत के लिए बन्दनवार सजायी जाती, फूलोंका गुच्छा भेंट किया जाता और घड़ेसे पानीका अर्घ दिया जाता था (श्लो० ४५)। प्रार्थना अथवा याचना करते समय अञ्जलि बाँधनेका रिवाज था (श्लो० ८५)। दान देते समय अञ्जलिसे जल देनेकी प्रथा बहुत प्राचीन कालसे प्रचलित थी और प्राचीन ताम्रपत्र लेखोंमें इसका बहधा उल्लेख मिलता है। जलाञ्जलि देना किसी वस्तुके स्वामित्वके पात्रका सूचक था (श्लो० ५४) । २१. एक स्थलपर डौढ़ी (डिण्डिम) पीटनेका उल्लेख मिलता है। यह आहत प्रकारका वाद्य था (श्लो० ३१) । श्लोक ५१-५२ में चित्रकलाके मूल सिद्धान्तका उल्लेख किया गया है। रेखान्यास चित्रकलाका मूल है। २२. प्राचीन साहित्यके बारेमें अमरु शतकमें केवल एक ही उल्लेख आया है। १२वें श्लोकमें धनञ्जय (अर्जुन)को गाय लौटाने में समर्थ कहा गया है। यह निश्चय ही महाभारतमें आयी हुई पाण्डवों द्वारा विराटकी गायोंकी रक्षा करनेकी कथाका संकेत है। २३ पहले श्लोकमें खटकामुख नामक मुद्राका उल्लेख आया है । इस मुद्राका वर्णन भरतके नाट्यशास्त्रमें प्राप्त होता है।' २४, तत्कालीन राजनीतिक विचारों और संघटनके विषयमें अमरु शतकसे कोई जानकारी नहीं मिलती। केवल कुछ प्रहरणों, जैसे धनुष (चाप, श्लो० १३५), बाण (शर श्लो०२), धनुषकी प्रत्यञ्चा (ज्या, श्लो० १) और ब्रह्मास्त्र (श्लो० ५२)का उल्लेख प्राप्त होता है। एक स्थानपर स्कन्धावारकी भी चर्चा की गयी है (श्लो०११५)। श्लो०१३७में वेदि पर आसीन राजाके सोनेके घड़ोंसे अभिषेक किये जानेका उल्लेख है। वेदिके दोनों ओर केलेके दण्ड लगाये जाते थे। २५. वासगृह अथवा शयनकक्ष (श्लो० ८२) घरका एक अनिवार्य अंग था। घरके आँगनमें बगीचा (अंगण-वाटिका) लगाया जाता था। उसमें लगाये जानेवाले वृक्षोंमें आम जैसे बड़े वृक्षका भी समावेश था (श्लो० ७८)। २६. प्रसंगवश निम्ननिर्दिष्ट पशु-पक्षियोंकी भी चर्चा आई है-गाय (श्लो० ३२), हिरण (मृग, श्लो० ६०; सारङ्ग श्लो० ७३; हरिण श्लो० १३८), मोर (शिखी, श्लो० ११८), खंजरीट (श्लो० १३५), तोता, भौंरा (भ्रमर, श्लो० १, अलि, श्लो० ९६) और भौंरी (भंगांगना, श्लो० ७८)। स्त्रियोंके नेत्रोंकी हिरणकी आँखोंसे तुलना एक प्रकारका कवि समय बन गया था। फलस्वरूप उनके लिए मृगदृक्ष, हरिणाक्षी और सारंगाक्षी जैसे शब्दोंका प्रयोग होता था। वर्षा ऋतुमें मोरोंके पंख ऊँचे कर बादलोंसे गिरती बूंदोंको देखनेका वर्णन है । भौंरों-भौंरियों के फूल-पत्तियोंके आसपास मँडराने और गुंजारनेका उल्लेख है। २७. वृक्ष-वनस्पतियोंमें सबसे अधिक उल्लेख कमलके हैं। उसके लिए उत्पल (श्लो० २,२९), १. नाटयशास्त्र । भाषा और साहित्य : २०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9