Book Title: Alap paddhati Ek Samikshatamak Adhyayan
Author(s): Devendra Kumar Jain
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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________________ पंचम खण्ड : ६७७ आलापपद्धति : एक समीक्षात्मक अध्ययन • डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री श्रीमद्देवसेनसूरि विरचित "आलापपद्धति" एक महत्त्वपूर्ण संस्कृत गद्यमें लिखित नय-प्ररूपक रचना है। सर्वप्रथम यह रचना सन १९०५ में सनातन जैन ग्रन्थमालासे प्रथम गच्छकमें प्रकाशित हुई थी। इसकी भाषा सरल होनेके कारण इसका प्रचार बहुत अधिक हआ। मल आलापपद्धति कई बार मद्रित हो चुकी । इसका एक संस्करण श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान, नातेपते (सोलापूर) से वीर सं० २४६० में प्रकाशित हुआ था । मूलके साथ इसमें हिन्दी अनुवाद भी भावार्थ सहित है । अनुवादक हैं - न्यायवाचस्पति पं० हजारीलाल न्यायतीर्थ । इसके सम्पादक व संशोधक हैं-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री। अनुवादमें पण्डितजीने कहींकहीं परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा यथोचित संशोधन किया है। प्रस्तावना पण्डितजीकी लिखी हुई है जो अत्यन्त संक्षिप्त होनेपर भी महत्त्वपूर्ण है । पण्डितजी लिखते हैं "वैसे तो जैनधर्म का साहित्यिक भण्डार अपरिमित है और उसमें गुण, पर्याय और स्वभाव आदिका वर्णन करनेवाले कई महत्त्वशाली ग्रन्थ है । परन्तु इस ग्रन्थमें जिस पद्धतिके अनुसार विषय-विवेचन किया गया है वह पद्धति निराली और अपूर्व है। इसमें गुण, पर्याय, स्वभाव, उपनय गुणोंकी व्युत्पत्ति, पर्यायकी व्युत्पत्ति, स्वभावोंकी व्युत्पत्ति, स्वभाव और गुणोंमें भेद, पदार्थों को सर्वथा अस्ति आदि एक स्वभाव मानने में दूषण, नय-दृष्टिसे वस्तु-स्वभाव-वर्णन, प्रमाणका लक्षण, व्युत्पत्ति और उसके भेद, नयका लक्षण, व्युत्पत्ति और उसके भेद, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयकी तथा उनके भेदों की व्युत्पत्ति और नय तथा उपनयोंके स्वरूपका वर्णन है । इस ग्रन्थकी रचना संस्कृत गद्यमें है, भाषा सरल है। बीच-बीचमें दूसरे ग्रन्थोंके भी श्लोक रूपमें मल विषयकी पुष्टि करनेवाले प्रमाण उद्धत किये हैं। इस ग्रन्थके कर्ता श्री देवसेनसूरि है । आलापपद्धतिके सिवाय आपने दर्शनसार, भावसंग्रह, आराधनासार और तत्त्वसार आदि कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है।" पण्डितजीकी टिप्पणियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । "आलापपद्धति" में निश्चय नयके नौ भेद माने गये हैं-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत । इसकी टिप्पणीमें आप लिखते हैं-पंचाध्यायीकारने निश्चयनयको एक ही माना है, अनेक नहीं । क्योंकि जो पुरुष एक निश्चयनयको शुद्ध द्रव्यार्थिक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक आदि रूपसे अनेक और सोदाहरण मानते हैं, वे अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि तथा सर्वज्ञकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले हैं, ऐसा पंचाध्यायीकारने कहा है। इसलिए उन्होंने शुद्ध द्रव्याथिक, अशद्ध द्रव्याथिक आदि सम्पूर्ण भेदोंको व्यवहारनयमें हो गर्भित किया है। और उस व्यवहारनयको मिथ्या तथा त्याज्य माना है। केवल एक निश्चयनयको ही यथार्थ और उपादेय माना है।" इस प्रकारकी टिप्पणियोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भसे ही पण्डितजीकी प्रवृत्ति तुलनात्मक अध्ययन की रही है। बड़े नयचक्रकी गाथाओंसे "आलापपद्धति" के सूत्रोंका साम्य स्थान-स्थानपर दर्शाया गया है । यथा-"कर्मोपाधिसापेक्षो शुद्धद्रव्यार्थिकः यथा-कर्मोपाधिजभाव आत्मा ।" इसकी टिप्पणी है-भावे सरायमादी सव्वे जीवंमि जो दु जपेदि । सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहि सावेक्खो ॥ नय० २१ कहीं-कहीं पर "आलापपद्धति तथा माइल्ल धवल 'नयचक्र" में अत्यन्त साम्य है। जैसे कि-उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुबद्रव्यार्थिको यथा-द्रव्यं नित्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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