Book Title: Akalankagranthatraya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ जिनभद्र, कलक, हरिभद्र ૪૭૨ ऐसा न्याय प्रमाण की समग्र व्यवस्था वाला कोई जैन प्रमाण ग्रन्थ श्रावश्यक था । कलंक, जिनभद्र की तरह पाँच ज्ञान, नय श्रादि श्रागमिक वस्तुओं की केवल तार्किक चर्चा करके ही चुप न रहे, उन्होंने उसी पंचज्ञान सतनय आदि श्रागमिक वस्तु का न्याय और प्रमाण-शास्त्र रूप से ऐसा विभाजन किया, ऐसा लक्षण प्रणयन किया, जिससे जैन न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के स्वतन्त्र प्रकरणों की माँग पूरी हुई | उनके सामने वस्तु तो श्रागमिक थी ही, दृष्टि और तर्क का मार्ग भी सिद्धसेन तथा समन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हुआ ही था, फिर भी प्रबल दर्शनान्तरों के विकसित विचारों के साथ प्राचीन जैन निरूपण का तार्किक शैली में मेल बिठाने का काम जैसा तैसा न था जो कि कलंक ने किया । यही सबब है कि कलंक की मौलिक कृतियाँ बहुत ही संक्षिप्त हैं, फिर भी वे इतनी अर्थघन तथा सुविचारित हैं कि आगे के जैन न्याय का वे आधार बन गई हैं । यह भी संभव है कि भट्टारक कलंक क्षमाश्रमण जिनभद्र की महत्त्वपूर्ण कृतियों से परिचित होंगे। प्रत्येक मुद्दे पर अनेकान्त दृष्टि का उपयोग करने की राजवार्तिक गत व्यापक शैली ठीक वैसी ही है जैसी विशेषावश्यक भाष्य में प्रत्येक चर्चा में अनेकान्त दृष्टि लागू करने की शैली व्यापक है । अकलंक और हरिभद्र आदि- तत्त्वार्थ भाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेनगणि जो गन्धहस्ती रूप से सुनिश्चित हैं, उनके और याकिनीसूनु हरिभद्र के समकालीनत्व के संबन्ध में अपनी संभावना तत्त्वार्थ के हिन्दी विवेचन के परिचय में बतला चुका हूँ । हरिभद्र की कृतियों में अभी तक ऐसा कोई उल्लेख नहीं पाया गया जो निर्विवाद रूप से हरिभद्र के द्वारा अकलंक की कृतियों के अवगाहन का सूचक हो । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति में पाया जानेवाला सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख अगर कलंक के सिद्धि • विनिश्चय का ही बोधक हो तो यह मानना पड़ेगा कि गन्धहस्ति सिद्धसेन कम से कम कलंक के सिद्धिविनिश्चय से तो परिचित थे हो । हरिभद्र और गन्धहस्ती कलंक की कृतियों से परिचित हों या नहीं फिर भी अधिक संभावना इस बात की है कि कलंक और गन्धहस्ती तथा हरिभद्र ये अपने दीर्घ जीवन में थोड़े समय तक भी समकालीन रहे होंगे। अगर यह संभावना ठीक हो तो विक्रम की आठवीं और नवीं शताब्दी का अमुक समय अकलंक का जीवन तथा कार्यकाल होना चाहिए । मेरी धारणा है कि विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जो कलंक की कृतियों के सर्वप्रथम व्याख्याकार हैं वे कलंक के साक्षात् विद्या शिष्य नहीं तो श्रनन्तरवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7