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'अकलंकग्रन्थत्रय' प्राकृतयुग और संस्कृतयुग का अन्तर--
जैन परम्परा में प्राकृतयुग वह है जिसमें एकमात्र प्राकृत भाषाओं में ही साहित्य रचने की प्रवृत्ति थी। संस्कृत युग वह है जिसमें संस्कृत भाषा में भी साहित्यनिर्माण की प्रवृत्ति व प्रतिष्ठा स्थिर हुई। प्राकृतयुग के साहित्य को देखने से यह तो स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय भी जैन विद्वान् संस्कृत भाषा, तथा संस्कृत दार्शनिक साहित्य से परिचित अवश्य थे। फिर भी संस्कृतयुग में संस्कृत भाषा में ही शास्त्र रचने की ओर झुकाव होने के कारण यह अनिवार्य था कि संस्कृत भाषा तथा दार्शनिक साहित्य का अनुशीलन अधिक गहरा तथा अधिक व्यापक हो। वाचक उमास्वाति के पहिले की संस्कृत-जैन रचना का हमें प्रमाण नहीं मिलता। फिर भी संभव है उनके पहले भी वैसी कोई रचना जैन-साहित्य में हुई हो । कुछ भी हो संस्कृत जैन साहित्य नीचे लिखी क्रमिक भूमिकाओं में विकसित तथा पुष्ट हुआ जान पड़ता है।
१–तत्त्वज्ञान तथा प्राचार के पदार्थों का सिर्फ आगमिक शैली में संस्कृत भाषा में रूपान्तर, जैसे कि तत्त्वार्थभाष्य, प्रशमरति श्रादि ।
२- उसी शैली के संस्कृत रूपान्तर में कुछ दार्शनिक छाया का प्रवेश, जैसे सर्वार्थसिद्धि।
३–इने गिने आगमिक पदार्थ (खामकर ज्ञानसंबन्धी ) को लेकर उस पर मुख्यतया तार्किकदृष्टि से अनेकान्तवाद की ही स्थापना, जैसे समन्तभद्र और सिद्धसेन की कृतियों।
४- ज्ञान और तत्संबन्धी आगमिक पदार्थों का दर्शनान्तरीय प्रमाण शास्त्र की तरह तर्कबद्ध शास्त्रीकरण, तथा दर्शनान्तरीय चिन्तनों का जैन वाङ्मय में अधिकाधिक संगतीकरण, जैसे अकलंक और हरिभद्र आदि की कृतियाँ ।
५–पूर्वाचार्यों की तथा निजी कृतियों के ऊपर विस्तृत-विस्तृतर टीकाएँ लिखना और उनमें दार्शनिकवादों का अधिकाधिक समावेश करना, जैसे विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेव आदि की कृतियाँ ।
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सिद्धसेन और समन्तभद्र ६-श्वेताम्बरीय-दिगम्बरीय दोनों प्राचीन कृतियों की व्याख्याओं में तथा निजी मौलिक कृतियों में नव्यन्याय की परिष्कृत शैली का संचार तथा उसी शैली की अपरिमित कल्पनाओं के द्वारा पुराने ही जैन-तत्त्वज्ञान तथा प्राचारसंबन्धी पदार्थों का अभूतपूर्व विशदीकरण, जैसे उपाध्याय यशोविजयजी की कृतियाँ । ___ उपर्युक्त प्रकार से जैन साहित्य का विकास व परिवर्द्धन हुआ है, फिर भी उस प्रबल तर्कयुग में कुछ जैन पदार्थ ऐसे ही रहे हैं जैसे वे प्राकृत तथा आगमिक युग में रहे । उन पर तर्कशैली या दर्शनान्तरीय चिन्तन का कोई प्रभाव आज तक नहीं पड़ा है। उदाहरणार्थ-सम्पूर्ण कर्मशास्त्र, गुणस्थानविचार, षडद्रव्यविचारणा, खासकर लोक तथा जीव विभाग आदि । सारांश यह है कि संस्कृत भाषा की विशेष उपासना तथा दार्शनिक ग्रन्थों के विशेष परिशीलन के द्वारा जैन आचार्यों ने जैन तत्वचिन्तन में जो और जितना विकास किया है, वह सब मुख्यतया ज्ञान
और तत्संबन्धी नय, अनेकान्त आदि पदार्थों के विषय में ही किया है। दूसरे प्रमेयों में जो कुछ नई चर्चा हुई भी है वह बहुत ही थोड़ी है और प्रासंगिक मात्र है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-मीमांसक बौद्ध आदि दर्शनों के प्रमाणशास्त्रों का अवगाहन जैसे-जैसे जैन परम्परा में बढ़ता गया वैसे-वैसे जैन आचार्यों की निजी प्रमाणशास्त्र रचने की चिन्ता भी तीव्र होती चली और इसी चिन्ता में से पुरातन पंचविध ज्ञान विभाग की भूमिका के ऊपर नए प्रमाणशास्त्र का महल खड़ा हुआ। सिद्धसेन और समन्तभद्र____ जैन परम्परा में तर्कयुग की या न्याय प्रमाण विचारणा की नींव डालनेवाले ये ही दो आचार्य हैं। इनमें से कौन पहले या कौन पीछे है इत्यादि अभी सुनिश्चित नहीं है। फिर भी इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि उक्त दोनों प्राचार्य ईसा की पाँचवी शताब्दी के अनन्तर ही हुए हैं। नए साधनों के आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का समय छठी शताब्दी का अन्त भी संभवित है। जो कुछ हो पर स्वामी समन्तभद्र के बारे में अनेकविध ऊहापोह के बाद मुझको अब अति स्पष्ट हो गया है कि-वे "पूज्यपाद देवनन्दी के पूर्व तो हुए ही नहीं। पूज्यपाद के द्वारा स्तुत आस के समर्थन में ही उन्होंने आप्तमीमांसा लिखी है, यह बात विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्री में सर्वथा स्पष्ट रूप से लिखी है। स्वामी समन्तभद्र की सब कृतियों की भाषा, उनमें प्रतिपादित दर्शनान्तरीय मत, उनकी युक्तियाँ उनके निरूपण का दंग और उनमें विद्यमान विचार विकास, यह सब वस्तु पू.यपाद के पहले तो जैन परंपरा में न आई है न आने का संभव ही
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* जैन धर्म और दर्शन था । जो दिङ्नाग, भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के साथ समन्तभद्र की कृतियों की बाह्यान्तर तुलना करेगा और जैन संस्कृत साहित्य के विकासक्रम की ओर ध्यान देगा वह मेरा उपर्युक्त विचार बड़ी सरलता से समझ लेगा । अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलंक के बीच साक्षात् विद्या का संबन्ध हो; क्योंकि समन्तभद्र' की कृति के अपर सर्वप्रथम अकलंक की व्याख्या है। यह हो नहीं सकता कि अनेकान्त दृष्टि को असाधारण रूप से स्पष्ट करनेवाली समन्तभद्र की विविध कृतियों में अतिविस्तार से और आकर्षक रूप से प्रतिपादित सप्तभंगियों को तत्त्वार्थ की व्याख्या में अकलंक तो सर्वथा अपनाएँ, जब कि पूज्यपाद अपनी व्याख्या में उसे छुएँ तक नहीं। यह भी संभव है कि---शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह-गत पात्रस्वामी शब्द स्वामी समन्तभद्र का ही सूचक हो। कुछ भी हो पर इतना निश्चित है कि श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन के बाद तुरन्त जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हुए और दिगम्बर परम्परा में स्वामी समन्तभद्र के बाद तुरन्त ही अकलंक आए। जिनभद्र और अकलंक
यद्यपि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों परम्परा में संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ती चली । फिर भी दोनों में एक अन्तर स्पष्ट देखा जाता है, वह यह कि दिगम्बर परम्परा संस्कृत की ओर झुकने के बाद दार्शनिक क्षेत्र में अपने प्राचार्यों को केवल संस्कृत में ही लिखने को प्रवृत्त करती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा अपने विद्वानों को उसी विषय में प्राकृत रचनाएँ करने को भी प्रवृत्त करती है। यही कारण है कि श्वेताम्बरीय साहित्य में सिद्धसेन से यशोविजयजी तक की दार्शनिक चिन्तनवाली प्राकृत कृतियाँ भी मिलती है। जब कि दिगम्बरीय साहित्य में मात्र संस्कृतनिबद्ध ही वैसी कतियाँ मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा का संस्कृत युग में भी प्राकृत भाषा के साथ जो निकट और गंभीर परिचय रहा है, वह दिगम्बरीय साहित्य में विरल होता गया है। क्षमाश्रमण जिनभद्र ने अपनी कृतियाँ प्राकृत में रची जो तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही हैं। भट्टारक अकलंक ने अपनी विशाल और अनुपम कृति राजवार्तिक संस्कृत में लिखी, जो विशेषावश्यक भाष्य की तरह तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही है। परन्तु जिनभद्र की कृतियों में ऐसी कोई स्वतन्त्र संस्कृत कृति नहीं है जैसी अकलंक की है। अकलंक ने आगमिक ग्रन्थ राजवार्तिक लिखकर दिगम्बर साहित्य में एक प्रकार से विशेषावश्यक के स्थान की पूर्ति तो की, पर उनका ध्यान शीघ्र ही ऐसे प्रश्न पर गया जो जैन परम्परा के सामने जोरों से उपस्थित था । बौद्ध और ब्राह्मण प्रमाणशास्त्रों की कक्षा में खड़ा रह सके
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जिनभद्र, कलक, हरिभद्र
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ऐसा न्याय प्रमाण की समग्र व्यवस्था वाला कोई जैन प्रमाण ग्रन्थ श्रावश्यक था । कलंक, जिनभद्र की तरह पाँच ज्ञान, नय श्रादि श्रागमिक वस्तुओं की केवल तार्किक चर्चा करके ही चुप न रहे, उन्होंने उसी पंचज्ञान सतनय आदि श्रागमिक वस्तु का न्याय और प्रमाण-शास्त्र रूप से ऐसा विभाजन किया, ऐसा लक्षण प्रणयन किया, जिससे जैन न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के स्वतन्त्र प्रकरणों की माँग पूरी हुई | उनके सामने वस्तु तो श्रागमिक थी ही, दृष्टि और तर्क का मार्ग भी सिद्धसेन तथा समन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हुआ ही था, फिर भी प्रबल दर्शनान्तरों के विकसित विचारों के साथ प्राचीन जैन निरूपण का तार्किक शैली में मेल बिठाने का काम जैसा तैसा न था जो कि कलंक ने किया । यही सबब है कि कलंक की मौलिक कृतियाँ बहुत ही संक्षिप्त हैं, फिर भी वे इतनी अर्थघन तथा सुविचारित हैं कि आगे के जैन न्याय का वे आधार बन गई हैं ।
यह भी संभव है कि भट्टारक कलंक क्षमाश्रमण जिनभद्र की महत्त्वपूर्ण कृतियों से परिचित होंगे। प्रत्येक मुद्दे पर अनेकान्त दृष्टि का उपयोग करने की राजवार्तिक गत व्यापक शैली ठीक वैसी ही है जैसी विशेषावश्यक भाष्य में प्रत्येक चर्चा में अनेकान्त दृष्टि लागू करने की शैली व्यापक है ।
अकलंक और हरिभद्र आदि-
तत्त्वार्थ भाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेनगणि जो गन्धहस्ती रूप से सुनिश्चित हैं, उनके और याकिनीसूनु हरिभद्र के समकालीनत्व के संबन्ध में अपनी संभावना तत्त्वार्थ के हिन्दी विवेचन के परिचय में बतला चुका हूँ । हरिभद्र की कृतियों में अभी तक ऐसा कोई उल्लेख नहीं पाया गया जो निर्विवाद रूप से हरिभद्र के द्वारा अकलंक की कृतियों के अवगाहन का सूचक हो । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति में पाया जानेवाला सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख अगर कलंक के सिद्धि • विनिश्चय का ही बोधक हो तो यह मानना पड़ेगा कि गन्धहस्ति सिद्धसेन कम से कम कलंक के सिद्धिविनिश्चय से तो परिचित थे हो । हरिभद्र और गन्धहस्ती
कलंक की कृतियों से परिचित हों या नहीं फिर भी अधिक संभावना इस बात की है कि कलंक और गन्धहस्ती तथा हरिभद्र ये अपने दीर्घ जीवन में थोड़े समय तक भी समकालीन रहे होंगे। अगर यह संभावना ठीक हो तो विक्रम की आठवीं और नवीं शताब्दी का अमुक समय अकलंक का जीवन तथा कार्यकाल होना चाहिए ।
मेरी धारणा है कि विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जो कलंक की कृतियों के सर्वप्रथम व्याख्याकार हैं वे कलंक के साक्षात् विद्या शिष्य नहीं तो श्रनन्तरवर्ती
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जैन धर्म और दर्शन अवश्य हैं, क्योंकि इनके पहिले अकलंक की कृतियों के ऊपर किसी के व्याख्यान का पता नहीं चलता। इस धारणा के अनुसार दोनों व्याख्याकारों का कार्यकाल विक्रम को नवमीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तो अवश्य होना चाहिए, जो अभी तक के उनके ग्रन्थों के अान्तरिक अवलोकन के साथ मेल खाता है । गन्धहस्ति भाष्य
दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र के गन्धहस्ति. महाभाष्य होने की चर्चा कभी चल पड़ी थी। इस बारे में मेरा असंदिग्ध निर्णय यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र के ऊपर या उसकी किसी व्याख्या के ऊपर स्वामी समन्तभद्र ने प्राप्तमीमांसा के अतिरिक्त कुछ भी लिखा ही नहीं है। यह कभी संभव नहीं कि समन्तभद्र की ऐसी विशिष्ट कति का एक भी उल्लेख या अवतरण अकलंक और विद्यानन्द जैसे उनके पदानुवर्ती अपनी कृतियों में बिना किये रह सकें। बेशक अकलंक का राजवार्तिक गुण और विस्तार की दृष्टि से ऐसा है कि जिसे कोई भाष्य ही नहीं महाभाष्य भी कह सकता है। श्वेताम्बर परंपरा में गन्धहस्ती की वृत्ति जब गन्धहस्ति महाभाष्य नाम से प्रसिद्ध हुई तब करीब गन्धहस्ती के ही समानकालीन अकलंक की उसी तत्त्वार्थ पर बनी हुई विशिष्ट व्याख्या अगर दिगम्बर परम्परा में गन्धहस्ति भाष्य या गन्धहस्ति महाभाष्य रूप से प्रसिद्ध या व्यवहृत होने लगे तो यह क्रम दोनों फिरकों की साहित्यिक परम्परा के अनुकूल ही है।
परन्तु हम राजवार्तिक के विषय में गन्धहस्ति महाभाष्य विशेषण का उल्लेख कहीं नहीं पाते। तेरहवीं शताब्दी के बाद ऐसा विरल उल्लेख मिलता है जो समन्तभद्र के गन्धहस्ति महाभाष्य का सूचन करता हो । मेरी दृष्टि में पीछे के सब उल्लेख निराधार और किंवदन्तीमूलक हैं। तथ्य यह ही हो सकता है कि अगर तत्वार्थ-महाभाष्य या तत्वार्थ-गन्धस्ति महाभाष्य नाम का दिगम्बर साहित्य में मेल बैठाना हो तो वह अकलंकीय राजवार्तिक के साथ ही बैठ सकता है। प्रस्तुत संस्करण
प्रस्तुत पुस्तक में अकलंकीय तीन मौलिक कृतियाँ एक साथ सर्वप्रथम संपादित हुई हैं। इन कृतियों के संबंध में तात्त्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से जितना साधन उपलब्ध है उसे विद्वान् संपादक ने टिप्पण तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टों के द्वारा प्रस्तुत पुस्तक में सन्निविष्ट किया है, जो जैन, बौद्ध, ब्राह्मण सभी परंपरा के विद्वानों के लिए मात्र उपयोगी नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी है। बेशक अकलंक की प्रस्तुत कृतियाँ अभी तक किसी पाठ्यक्रम में नहीं हैं तथापि उनका महत्व और उपयोगित्व दूसरी दृष्टि से और भी अधिक है।
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'अकलंकमन्यत्रय
४८१ अकलंकअन्यत्रय के संपादक पं. महेन्द्रकुमारजी के साथ मेरा परिचय छह साल का है। इतना ही नहीं बल्कि इतने अरसे के दार्शनिक चिन्तन के अखादे में हमलोग समशील साधक हैं। इससे मैं पूरा ताटस्थ्य रखकर भी निःसंकोच कह सकता हूँ कि पं० महेन्द्रकुमारजीका विद्याव्यायाम कम से कम बैन परंपरा के लिए तो सत्कारास्पद ही नहीं अनुकरणीय भी है। प्रस्तुत ग्रंथ का बहुश्रुतसंपादन उक्त कथन का साक्षी है। प्रस्तावना में विद्वान् संपादक ने अकलंक देव के समय के बारे में जो विचार प्रकट किया है मेरी समझ में अन्य समर्थ प्रमाणों के अभाव में वही विचार अान्तरिक यथार्थ तुलनामूलक होने से सत्य के विशेष निकट है। समयविचार में संपादक ने जो सूक्ष्म और विस्तृत तुलना की है वह तत्त्वज्ञान तथा इतिहास के रसिकों के लिए बहुमूल्य भोजन है । ग्रन्थ के परिचय में संपादक ने उन सभी पदार्थों का हिन्दी में वर्णन किया है जो अकलंकीय प्रस्तुत ग्रन्थत्रय में ग्रथित हैं। यह वर्णन संपादक के जैन और जैनेतर शास्त्रों के आकंठपान का उद्गार मात्र है। संपादक की दृष्टि यह है कि जो अभ्यासी जैन प्रमाण शास्त्र में आनेवाले पदार्थों को उनके असली रूप में हिन्दी भाषा के द्वारा ही अल्पश्रम में जानना चाहे उन्हें वह वर्णन उपयोगी हो। पर उसे साद्यन्त सुन लेने के बाद मेरे ध्यान में तो यह बात श्राई है कि संस्कृत के द्वारा ही जिन्होंने जैन न्याय-प्रमाण शास्त्र का परिशीलन किया है वैसे जिज्ञासु अध्यापक भी अगर उस वर्णन को पट जायँगे तो संस्कृत मूल अन्थों के द्वारा भी स्पष्ट एवं वास्तविक रूप में अज्ञात कई प्रमेयों को वे सुज्ञात कर सकेंगे। उदाहरणार्थ कुछ प्रमेयों का निर्देश भी कर देता हूँ-~प्रमाणसंप्लव, द्रव्य और सन्तान की तुलना आदि। सर्वज्ञत्व भी उनमें से एक है, जिसके बारे में संपादक ने ऐसा ऐतिहासिक प्रकाश डाला है जो सभी दाशनिकों के लिए ज्ञातव्य है। विशेषज्ञों के ध्यान में यह बात बिना पाए नहीं रह सकती कि कम से कम जैन न्यायप्रमाण के विद्यार्थियों के वास्ते तो सभी जैन संस्थाओं में यह हिन्दी विभाग वाचनीय रूप से अवश्य सिफारिश करने योग्य है ।
प्रस्तुत ग्रंथ उस प्रमाणमीमांसा की एक तरह से पूर्ति करता है जो थोड़े ही दिनों पहले सिंघी जैन सिरीज में प्रकाशित हुई है। प्रमाणमीमांसा के हिन्दी टिप्पणों में तथा प्रस्तावना में नहीं पाए ऐसे प्रमेयों का भी प्रस्तुत ग्रंथ के हिन्दी वर्णन में समावेश है। और उसमें आए हुए अनेक पदार्थों का सिर्फ दूसरी भाषा तथा शैली में ही नहीं बल्कि दूसरी दृष्टि तथा दूसरी सामग्री के साथ समावेश है। अतएव कोई भी जैन तत्त्वज्ञान का एवं न्याय-प्रमाण शास्त्र का गम्भीर अभ्यासी सिंघी जैन सिरीज के इन दोनों ग्रंथों से बहुत कुछ जान सकेगा।
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________________ 462. जैन धर्म और दर्शन .: प्रसंगवश मैं अपने पूर्व लेख की सुधारणा भी कर लेता हूँ। मैंने अपने पहले लेखों में अनेकान्त की व्याप्ति बतलाते हुए यह भाव सूचित किया है कि प्रधानतया अनेकान्त तात्त्विक प्रमेयों की ही चर्चा करता है / अलबत्ता इस समय मेरा वह भाव तकप्रधान ग्रंथों को लेकर ही था। पर इसके स्थान में . यह कहना अधिक उपयुक्त है कि तर्कयुग में अनेकान्त की विचारणा भले ही प्रधानतथा तत्त्विक प्रमेयों को लेकर हुई हो फिर भी अनेकान्त दृष्टि का उपयोग तो आचार के प्रदेश में आगमों में उतना ही हुश्रा है जितना कि तत्त्वज्ञान के प्रदेश में। तर्कयुगीन साहित्य में भी अनेक ऐसे अंथ बने हैं जिनमें प्रधानतया आचार के विषयों को लेकर ही अनेकान्त दृष्टि का उपयोग हुआ है। अतएव समुच्चय रूप से यही कहना चाहिए कि अनेकान्त दृष्टि आचार और विचार के प्रदेश में एक सी लागू की गई है। सिंघी जैन सिरीज के लिए यह सुयोग ही है कि जिसमें प्रसिद्ध दिगंबराचार्य की कृतियों का एक विशिष्ट दिगंबर विद्वान् के द्वारा ही सम्पादन हुआ है। यह भी एक आकस्मिक सुयोग नहीं है कि दिगंबराचार्य की अन्यत्र अलभ्य परंतु श्वेताम्बरीय-भाण्डार से ही प्राप्त ऐसी विरल कृति का प्रकाशन श्वेताम्बर परंपरा के प्रसिद्ध बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंघी के द्वारा स्थापित और प्रसिद्ध ऐतिहासिक मुनि श्री जिन विजय जी के द्वारा संचालित सिंघी जैन सिरीज में हो रहा है / जब मुझको विद्वान् मुनि श्री पुण्यविजय जी के द्वारा प्रमाणसंग्रह उपलब्ध हुआ तब यह पता न था कि वह अपने दूसरे दो सहोदरों के साथ इतना अधिक सुसजित होकर प्रसिद्ध होगा। ई० 1636] [ 'अकलंकमन्थत्रय' का प्राकथन